उध्दव जी के कवित्त

श्री उद्धव-वचन ब्रजवासियों से

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चाहत जौ स्वबस सँजोग स्याम-सुन्दर कौ जोग के प्रयोग मैं हियौ तौ बिलस्यौ रहै ।

कहै रतनाकर सु-अंतर-मूखी है ध्यान मंजु हिय-कंज-जगी जोति मैं धस्यौ रहै ।।

ऐसैं करौं लीन आतमा कौं परमातमा मैं जामैं जड़-चेतन-बिलास बिकस्यौ रहै ।

मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाकौ छोहि सो तौ सब अंतर-निरंतर बस्यौ रहै ।।

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पंच तत्व मैं जो सच्चिदानँद की सत्ता सो तौ हम तुम उनमैं समान ही समोई है ।

कहै रतनाकर बिभूति पंच-भूत हू की एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है ।।

माया के प्रपंच ही सौं भासत प्रभेद सबै काँच-फलकनि ज्यौं अनेक एक सोई है ।

देखौ भ्रम-पटल उघारि ज्ञान-आँखिनि सौं कान्ह सब ही मैं कान्ह ही मैं सब कोई है ।।

39

सोई कान्ह सोई तुम सोई सबही हैं लखौ घट-घट-अंतर अनंत स्यामघन कौं ।

कहै रतनाकर न भेद-भावना सौं भरौ बारिधि औ बूँद के बिचारि बिछुरन कौं ।।

अबिचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि जोग जुगती करि जुगावौ ज्ञान -धन कौं ।

जीव आतमा कौं परमातमा मैं लीन करौ छीन करौ तन कौं न दीन करौ मन कौं ।।

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सुनि सुनि ऊधव की अकह कहानी कान कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिं थिरानी हैं ।

कहै रतनाकर रिसानी, बररानी कोऊ कोऊ बिलखानी, बिकलानी, बिथकानी हैं ।।

कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी-रहीं कोऊ घूमि-घूमि परीं भूमि मुरझानी हैं ।

कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानी कोऊ कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी हैं ।।

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