कनुप्रिया – आम्र-बौर का गीत

कनुप्रिया – आम्र-बौर का गीत

धर्मवीर भारती

यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में

बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ

इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं

इन क्षणों में अकस्मात

तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज

सिर्फ जिस्म की नहीं होती

मन की भी होती है

एक मधुर भय

एक अनजाना संशय,

एक आग्रह भरा गोपन,

एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।

भय, संशय, गोपन, उदासी

ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह

मुझे घेर लेती हैं,

और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय

नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे

अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की

झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें

तुम्हारे माथे मे मोरपंखों

से बेबस विदा माँगने लगीं

– मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से

मुँह उठाये देखती रहीं और फिर

धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर

बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं

– मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर

मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं

और कन्धों पर पतवारें रख चले गये –

मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी

और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे

और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी,

नहीं आयी तुम अन्त में उठे

एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा

और धीरे-धीरे चल दिये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर

श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं …..

यह तुमने क्या किया प्रिय!

क्या अपने अनजाने में ही

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर

इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर

माथे पर पल्ला डाल कर

झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर

तुम्हें प्रणाम करने

– नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में

बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ

इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं

इन क्षणों में अकस्मात

तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज

सिर्फ जिस्म की नहीं होती

मन की भी होती है

एक मधुर भय

एक अनजाना संशय,

एक आग्रह भरा गोपन,

एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।

भय, संशय, गोपन, उदासी

ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह

मुझे घेर लेती हैं,

और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय

नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे

अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की

झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें

तुम्हारे माथे मे मोरपंखों

से बेबस विदा माँगने लगीं –

मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से

मुँह उठाये देखती रहीं और फिर

धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर

बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं –

मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर

मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं

और कन्धों पर पतवारें रख चले गये –

मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी

और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे

और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे

एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा

और धीरे-धीरे चल दिये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर

श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं …..

यह तुमने क्या किया प्रिय!

क्या अपने अनजाने में ही

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर

इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर

माथे पर पल्ला डाल कर

झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर

तुम्हें प्रणाम करने –

नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

*
o

पर मेरे प्राण

यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही

बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर

जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को

तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को

महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो

तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ

अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस

मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ

पर शाम को जब घर आती हूँ तो

निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में

अपनी उन्हीं चरणों को

अपलक निहारती हूँ

बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ

जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को

चारों ओर देख कर धीमे-से

चूम लेती हूँ।

रात गहरा आयी है

और तुम चले गये हो

और मैं कितनी देर तक बाँह से

उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ

जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हूँ,

हताश, और निष्फल

और ये आम के बौर के कण-कण

मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।

पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे

कि देर ही में सही

पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी

और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे

ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो

इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता

कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है

और काँटों और काँकरियों से

मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें

कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी

जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं

तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती

तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती

तो मेरे साँवरे –

लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय,

अपरिचित संशय,

आग्रह भरा गोपन,

और सुख के क्षण

में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी –

फिर भी उसे चीर कर

देर में ही आऊँगी प्राण,

तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी

चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?

पर मेरे प्राण यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ पर शाम को जब घर आती हूँ तो निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में अपनी उन्हीं चरणों को अपलक निहारती हूँ बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को चारों ओर देख कर धीमे-से चूम लेती हूँ। रात गहरा आयी है और तुम चले गये हो और मैं कितनी देर तक बाँह से उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो और मैं लौट रही हूँ, हताश, और निष्फल और ये आम के बौर के कण-कण मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं। पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे कि देर ही में सही पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है और काँटों और काँकरियों से मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं! यह कैसे बताऊँ तुम्हें कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती तो मेरे साँवरे – लाज मन की भी होती है एक अज्ञात भय, अपरिचित संशय, आग्रह भरा गोपन, और सुख के क्षण में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी – फिर भी उसे चीर कर देर में ही आऊँगी प्राण, तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?