कामी का अंग – कबीर के दोहे

कामी का अंग

– संत कबीर

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं ॥1॥

भावार्थ / अर्थ – परनारी से जो प्रीति जोड़ते हैं और चोरी की कमाई खाते हैं, भले ही वे चार दिन फूले-फूले फिरें ।किन्तु अन्त में वे जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं ।

परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि ।
खूणैं बैसि र खाइए, परगट होइ दिवानि ॥2॥

भावार्थ / अर्थ – परनारी का साथ लहसुन खाने के जैसा है, भले ही कोई किसी कोने में छिपकर खाये, वह अपनी बास से प्रकट हो जाता है ।

भगति बिगाड़ी कामियाँ, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥3॥

भावार्थ / अर्थ – भक्ति को कामी लोगों ने बिगाड़ डाला है, इन्द्रियों के स्वाद में पड़कर, और हाथ से हीरा गिरा दिया, गँवा दिया । जन्म लेना बेकार ही रहा उनका ।

कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि ।
कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि ॥4॥

भावार्थ / अर्थ – कामी मनुष्य को अमृत पसंद नहीं आता, वह तो जगह-जगह विष को ही खोजता रहता है । कामी जीव की कुबुद्धि जाती नहीं, चाहे स्वयं शम्भु भगवान् ही उपदेश दे- देकर उसे समझावें ।

कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ॥5॥

भावार्थ / अर्थ – कामी मनुष्य को लज्जा नहीं आती कुमार्ग पर पैर रखते हुए, मन में बड़ा आह्लाद होता है उसे । नींद लगने पर यह नहीं देखा जाता कि बिस्तरा कैसा है, और भूखा मनुष्य स्वाद नहीं जानता, चाहे जो खा लेता है ।

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता ।
ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता ॥6॥

भावार्थ / अर्थ – ज्ञानी ने अहंकार में पड़कर अपना मूल भी गवाँ दिया, वह मानने लगा कि मैं ही सबका कर्ता-धर्त्ता हूँ । उससे तो संसारी आदमी ही अच्छा, क्योंकि वह डरकर तो चलता है कि कहीं कोई भूल न हो जाय ।