गोदान (भाग 1)

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होरी अपने गांव के समीप पहुँचा तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियां भी उसके साथ काम कर रही हैं. लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था. जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो. यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला-आता क्यों नहीं गोबर,क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गयी, कुछ सूझता है कि नहीं? उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये. गोबर सांवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम में रुचि न मालूम होती थी. प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था. वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने पीने की कोई फिक्र नहीं है. बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, सांवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल. गाढ़े की लाल साड़ी, जिसे वह घुटनों से मोड़कर कमर में बांधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई-सी थी और उसे प्रोढ़ता की गरिमा दे रही थी. छोटी रूपा पांच साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोसला-सा बना हुआ,एक लंगोटी कमर में बांधे,बहुत ही ढ़ीठ और रोनी. रूपा ने होरी की टांगो में लिपट कर कहा-काका! देखो, मैंने एक ढेला भी नहीं छोड़ा. बहिन कहती है, जा पेड़ तले बैठ. ढेले न तोड़े जायेंगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी? होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा-तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल, घर चलें. कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रखने के बाद गोबर बोला-यह तुम रोज-रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके, तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है,नजर नजराना सब तो हमसे भराया जाता है. फिर किसी की क्यों सलामी करो? इस समय यही भाव होरी के मन में आरहे थे, लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना जरुरी था. बोला- सलामी करने न जायें, तो रहें कहां? भगवान ने जब गुलाम बना बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा. घूरे ने द्वार पर खूंटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपये डांड़ ले लिये थे. तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा, दूसरा खोदे, तो नजर देनी पड़े. अपने मतलब के लिये सलामी करने जाता हूं, पांव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है. घण्टों खड़े रहो,तब जाकर मालिक को खबर होती है. कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं है. गोबर ने कटाक्ष किया-बड़े आदमियों की हां में हां मिलाने में कुछ न कुछ आनन्द तो मिलता ही है. नहीं लोग मेम्बरी के लिये क्यों खड़े हों? `जब सिर पर पड़ेगी, तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो. पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था, पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरो के नीचे दबी हुई है,अकड़कर निबाह नहीं हो सकता.’ पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा. सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है, तो ईर्ष्या हुई. डांटकर बोली-अब गोद से उतरकर पांव- पांव क्यों नहीं चलती,क्या पांव टूट गये हैं? रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा- न उतरेंगे, जाओ. काका, बहिन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूं. मेरा नाम कुछ और रख दो. होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा-तू इसे क्यों चिढाती है सोनिया? सोना तो देखने को है. निबाह तो रूपा से होता है. रूपा न हो, तो रुपये कहां से बनें, बता? सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया-सोना न हो, तो मोहनमाला कैसे बने,नथुनियां कहां से आये, कण्ठा कैसे बने? गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया. रूपा से बोला-तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है, जैसे सूरज. सोना बोली-शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है,उजली साड़ी कोई नहीं पहनता. रूपा इस दलील से परास्त हो गई. गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी. उसने क्षुब्ध आंखों से होरी को देखा. होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी. बोला-सोना बड़े आदमियों के लिये है. हम गरीबों के लिये तो रूपा ही है.जैसे जौ को राजा कहते हैं,गेहूं को चमार, इसलिये न कि गेहूं बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं. सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जबाब न था. परास्त होकर बोली-तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती. रूपा ने उंगली मटकाकर कहा-ए राम, सोना चमार-ए राम, सोना चमार. इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी. जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी-रूपा राजा, सोना चमार-रूपा राजा,सोना चमार! ये लोग घर पहुँचे, तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी. रुष्ट होकर बोली-आज इतनी देर क्यौं की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही देता है. फिर पति से गरम होकर कहा- तुम भी वहां से कमाई करके लौटे, तो खेत में पहुंच गये. खेत कहीं भागा जाता था? द्वार पर कुआं था. होरी और गोबर ने एक एक कलसा पानी सिर पर उड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये. जौ की रोटियां थीं, पर गेहूं जैसी सफेद और चिकनी. अरहर की दाल थी,जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे. रूपा बाप की थाली में खाने बैठी. सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आंखों से देखा, मानो कह रही ती ,वाह रे दुलार. धनिया ने पूछा- मालिक से क्या बातचीत हुई? होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा-यही तहसील-वसूल की बात थी, और क्या! हम लोग समझते हैं,बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे, लेकिन सच पूछो,तो वह हमसे भी ज्यादा दुखी हैं. हमें अपने पेट की चिन्ता हैं, उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती हैं. रायसाहब ने और क्या -क्या कहा था, कुछ होरी को याद न था. उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका रह गया था. गोबर ने व्यंग किया-तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते? हम अपने खेत, बैल, हल, सब उन्हें देने को तैयार हैं. करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है,निरी मोटमरदी. जिसे दुःख होता है,वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच- रंग में लिप्त रहता है. मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं! होरी ने झुंझलाकर कहा- अब तुमसे बहस कौन करे भाई? जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे. हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती. जो दस रुपये महीने का भी नौकर है,वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता. खेती छोड़ दें ,तो क्या?नौकरी कहीं मिलता है? फिर मर जाद भी तो पालना पड़ता है. खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो. उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ,उनकी सलामी करो, अमलों को खुश करो. तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाय, हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता. दो चार गालियां-घुड़कियां ही तो मिलकर रह जाती हैं. गोबर ने प्रतिवाद किया-यह सब कहने की बातें हैं. हम लोग दाने दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है,तब भी गुजर नहीं होता. उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं,हजारों आद मियों पर हुकुमत है. रुपये न जमा होते हों, पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं. धन लेकर आदमी और क्या करता हैं? `तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?’ `भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है’ `यह बात नहीं है बेटा छोटे -बड़े भगवान के घर से बनकर आते हैं.सम्पत्ति बड़ी तपस्य से मिलती है. उन्होने पूर्व जन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनंद भोग रहें हैं. हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?’ यह सब मन को समझाने की बातें हैं.भगवान सबको बराबर बनाते हैं. यहां जिसके हाथ में लाठी है,वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है.’ `यह तुम्हारा भरम है. मालिक आज भ