मानसरोवर भाग 1

6 – बलिदान

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उनके नाम पर पड़ता है । मौजे बेला के मँगरू ठाकुर जब से कान्सटिबिल हो गये हैं, उनका नाम मंगलसिंह हो गया है । अब उन्हें कोई मँगरू कहने का साहस नहीं कर सकता कल्लू अहिर ने जब से हलके के थानेदार साहब मित्रता कर ली और गाँव का मुखिया हो गया है, उसका नाम कालिकादीन हो गया है । अब उसे कोई कल्लू कहे तो आँखें लाल-पीली करता है। इसी प्रकार हरखचन््द्र कुरमी अब हरखू हो गया है । आजसे बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी , कई हल की खेती होती थी और कारोबार खूब फैला हुआ था । लेकिन शक्कर की आमद ने उसे मटियामेट कर दिया । धीरे-धीरे कारखाना टूट गया, जमीन छूट गयी, गाहक टूट गये और वह भी टूट गया । सत्तर वर्ष का बूढ़ा, जो एक तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारियल पिया करता था, अब सिर पर टोकरी लिए खाद फेंकने जाता है । परंतु उसके मुख पर भी एक प्रकार की गंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल में अब भी एक प्रकार का स्वाभिमान भरा हुआ है । इन पर काल की गति का प्रभाव नहीं पढ़ा । रस्सी जल गयी, पर बल नहीं टूटा । भले दिन मनुष्य के चरित्र पर, सदैव के लिए अपना चिन्ह छोड़ जाते हैं । हरखू के पास अब केवल पाँच बीघा जमीन है । केवल दो बैल हैं । एक ही हल की खेती होती है । लेकिन पंचायतों में, आपस की कलह में, उसकी सम्मति अब भी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती है । वह जो बात कहता है, बेलाग कहता है और गाँव के अनपढ़े उसके सामने मुँह नहीं खोल सकते । हरखू ने अपने जीवन में कभी दवा नहीं खायी । वह बीमार जरूर पड़ता ,कुआर मास में मलेरिया से कभी न बचता था । लेकिन दस-पाँच दिन में वह बिना दवा खाये ही चंगा हो जाता था । इस वर्ष भी कार्तिक में बीमार पड़ा और यह समझ कर कि अच्छा तो हो ही जाऊँगा, उसने कुछ परवा न की । परंतु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था । एक सप्ताह बीता दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया; पर हरखू चारपाई से न उठा । अब उसे दवा की जरूरत मालूम हुई। उसका लड़का, गिरधारी कभी नीम के सीखें पिलाता कभी गुर्च का सत, कभी गदापूरना की जड़ ; पर इन औषधियों से कोई फायदा न होता था । हरखू को विश्वास हो गया कि अब संसार से चलने के दिन आ गये । एक दिन मंगलसिंह उसको देखने गये, बेचारा टूटी खाट पर पढ़ा राम-राम जप रहा था । मंगलसिंह ने कहा-बाबा, बिना दवा खाये अच्छे न होंगे; कुनैन क्यों नहीं खाते ? हरखू ने उदासीन भाव से कहा – तो लेते आना । दूसरे दिन कालिकादीन ने आकर कहा -बाबा, दो चार दिन कोई दवा खा लो । अब तुम्हारी जवानी की देह थोड़े ही है कि बिना दवा-दर्पण के अच्छे हो जाओगे । हरखू ने उसी मंद भाव से कहा- तो लेते आना । लेकिन रोगी को देख आना एक बात है, दवा लाकर उसे देना दूसरी बात है । पहली बात शिष्टचार से होती है, दूसरी सच्ची समवेदना से । न मंगलसिंह ने खबर ली; न कालिकादीन ने, न किसी तीसरे ही ने । हरखू दालान में खाट पर पड़ा रहता । मंगलसिंह कभी नजर आ जाते तो कहता – भैया, वह दवा नहीं लाये ? मंगलसिंह कतरा कर निकल जाते । कालिकादीन दिखायी देते तो उनसे भी यही प्रश्न करता लेकिन वह भी नजर बचा लेता ।या तो उसे यह सूझता ही नहीं था कि दवा पैसें के बिना नहीं आती, या वह पैसों को जान से भी प्रिय समझता था, अथवा वह जीवन से निराश हो गया था । उसने कभी दवा के दाम की बात नहीं की । दवा न आयी । उसकी दशा दिनों-दिनों बिगड़ती गयी । यहाँ तक कि पाँच महीने कष्ट भोगने के बाद उसने ठीक होली के दिन शरीर त्याग दिया । गिरधारी ने उसका शव बड़ी धूमधाम से निकाला । क्रिया-कर्म बड़े हौसले से किया । गाँव के ब्राह्मणों को निमंत्रित किया । बेला में होली न मनायी गयी, न अबीर और गुलाल उड़ी, न डफली बजी न भंग की नालियाँ बही । कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढे को आज ही मरना था, दो चार दिन बाद मरता । लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता । वह शहर नहीं था, जहाँ कोई किसी के काम में शरीक नहीं होता, जहाँ पड़ोसी के रोने पीटने की आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुँचती ।

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हरखू के खेत गाँववालों की नजर पर चढ़े हुए थे । पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट, खाद -पाँस से लदी हुई मेड़ बाँध से ठीक थी । उनमें तीन-तीन फसलें पैदा होती थीं । हरखू के मरते ही उन पर चारों ओर से धावे होने लगे । गिरधारी तो क्रिया-कर्म में फँसा हुआ उधर गाँव के मन चले किसान लाला ओंकारनाथ को चैन न लेने देते थे,नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश हो रही थीं । कोई साल भर का लगान पेशगी देने पर तैयार था, कोई नजराने की दूनी रकम का दस्तावेज लिखने पर तुला हुआ था; लेकिन ओंकारनाथ सबको टालते रहते थे । उनका विचार था कि गिरधारी का हक सबसे ज्यादा है । वह अगर दूसरों से कम भी नजराना दे तो खेत उसी को देने चाहिए । अस्तु, अब गिरधारी क्रिया-कर्म से निवृत्त हो गया और चैत का महीना भी समाप्त होने आया, तब जमींदार साहिब ने गिरधारी को बुलाया और उससे पूछा-खेतों के बारे में क्या कहते हो ? गिरधारी ने रो-रोकर कहा-उन्हीं खेतों ही का आसरा जोतूँगा नहीं तो क्या करूँगा । ओंकारनाथ- नहीं, जरूर जोतो, खेत तुम्हारे हैं । मैं तुमसे छोड़ने कि नहीं कहता हूँ । हरखू ने उन्हें बीस साल तक जोता । उन पर तुम्हारा हक है । लेकिन तुम देखते हो अब जमीन की दर कितनी बढ़ गयी है । तुम आठ रुपये बीघे पर जोतते थे, मुझे 10) रु0 मिल रहे हैं । और नजराने के रुपये सौ अलग । तुम्हारे साथ रियायत करके लगान वही रखता हूँ ; पर नजराने के रुपये तुम्हें देने पड़ेंगे । गिरधारी सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोटियों का भी ठिकाना नहीं है । इतने रुपये कहाँ से लाऊँगा ? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम में उठ गयी । अनाज खलिहान में है लेकिन दादा के बीमार हो जाने से उपज भी अच्छी नहीं हुई है । रुपये कहाँ से लाऊँ ? ओंकारनाथ – यह सच है, लेकिन मैं इससे ज्यादा रियायत नहीं कर सकता । गिरधारी – नहीं सरकार, ऐसा न कहिए । नहीं तो हम बिना मारे मर जायँगे । आप बड़े होकर कहते हैं तो मैं बैल-बधिया बेचकर पचास रुपया कर सकता हूँ । इससे बेशी की हिम्मत नहीं पड़ती । ओंकारनाथ चिढ़ कर बोले- तुम समझते होंगे कि हम ये रुपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंसी बजाते हैं । लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुजरती है हमीं जानते हैं । कहीं यह चंदा कहीं वह इनाम । इनके मारे कचूमर निकल जाता है । बड़े दिन में सैकड़ों रुपये डालियों में उड़ जाते हैं । जिसे डाली न दों, वही मुँह फुलाता है । जिन चीजों के लिए लड़के तरस कर रह जाते हैं, उन्हें बाहर मँगा कर डालियों में सजाता हूँ । उस पर उस पर कभी कानूनगो आ गये कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया । सब मेरे मेहमान होते हैं । अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सब की आँखों में काँटा बन जाऊँ । साल में हजार-बारह सौ मोदी को रसद खुराक के मद में देने पड़ते हैं । यह सब कहाँ से आवे ? बस, यही जी चाहता है कि छोड़ कर निकल जाऊँ । लेकिन हमें तो परमात्मा ने इसलिए बनाया है कि एक से रुपया सता कर ले और दूसरे को रो-रो कर दें, यही हमारा काम है । तुम्हारे साथ इतनी रियायत कर रहा हूँ । लेकिन तुम इतनी रियायत पर भी खुश नहीं होते तो हरि इच्छा । नजराने में एक पैसे की भी रियायत न होगी । अगर एक हफ्ते के अंदर रुपये दाखिल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, नहीं; मैं कोई दूसरा प्रबन्ध कर दूँगा ।

(3)

गिरधारी उदास और निराश हो कर घर आया । 100 रु0 का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था । सोचने लगा- अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही ले कर क्या करूँगा ? घर बेचूँ तो यहाँ लेनेवाला ही कौन है ? और फिर बाप-दादों का नाम डूबता है । चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेच कर 25 रु0 या 30 रु0 से अधिक न मिलेंगे । उधार लूँ तो देता कौन है अभी बनिये के 50 रु0 सिर पर चढ़े हैं । वह एक पैसा भी न देगा । घर में गहने भी तो नहीं हैं । नहीं उन्हीं को बेचता । ले-दे कर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है । साल भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी । गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता मे पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था । गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती । खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती । हाय! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रक्खी, जिसकी मेड़ें बनायी उसका मजा अब दूसरा उठायेगा । ये खेत गिरधारी के जीवन के अंश हो गये थे । उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त से रँगी हुई थी ! उनका एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो गया था । उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे जिस तरह अपने तीनों बच्चों के । कोई चौबीसों था, कोई बाइसों था, कोई नालेवाला, कोई तलैयावाला । उन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था । वह इन खेतों की चर्चा इस तरह करता मानों वे सजीव हैं । मानों उसके भले-बुरे के साथी हैं । उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मन की मिठाइयाँ, सारे हवाई किले इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे । इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था । और वे ही अब हाथ से निकल जाते हैं वह घबड़ा कर घर से निकल जाता और घंटों उन्हीं खेतों के मेड़ों पर बैठा हुआ रोता, मानों उनसे विदा हो रहा हो । इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बन्दोबस्त न कर सका । आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रु0 नजराने देकर 10 रु0 बीघे पर खेत ले लिये । गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली । एक क्षण बाद वह अपने दादा का नाम ले कर बिलख-बिलख रोने लगा । उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला । ऐसा मालूम होता था मानो हरखू आज ही मरा ।

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लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी । वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी और उसकी स्त्री को खूब लथेड़ा – कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं । देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ । पड़ोसियों ने उसका पक्ष किया, सब तो हैं, आपस में यह चढ़ा-ऊपरी नहीं करना चाहिए । नारायण ने धन दिया है, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे । सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया । उसका चित्त शांत हो गया । किंतु वही वायु जो पानी में लहरें पैदा करती है, वृक्षों को जड़ से उखाड़ डालती हैं सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती । इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा ? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जायँगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता । इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था । वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था । उसके घर में धन न था, पर मान था । नाई, बढ़ई, कुम्हार, पुरोहित, भाट चौकीदार, ये सब उसका मुँह ताकते थे । अब यह मर्यादा कहाँ ! अब कौन उसकी बात पूछेगा उसके द्वार पर जावेगा ? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा । अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी । अब पहर रात रहे कौन बैलों को नाँद में लगावेगा । वह दिन अब कहाँ, जब गीत गा-गाकर हल चलाता था । चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी । अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला न समाता था । खलिहान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था । अब अनाज के टोकरे भर-भर कर कौन लावेगा ? अब खत्ते कहाँ ? बखार कहाँ ? यही सोचते-सोचते गिरधारी की आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती थी । गाँव के दो-चार सज्जन, जो कालिकादीन से जलते थे, कभी-कभी गिरधारी को तसल्ली देने आया करते थे, पर वह उनसे भी खुल कर न बोलता । उसे मालूम होता था कि मैं सबकी नजर में गिर गया हूँ । अगर कोई समझाता कि तुमने क्रिया-कर्म में व्यर्थ इतने रुपये उड़ा दिये,तो उसे बहुत दुख होता । वह अपने उस काम पर जरा भी न पछताता । मेरे भाग्य में जो लिखा है वह होगा; पर दादा के ऋण से तो उऋण हो गया । उन्होंने अपनी जिंदगी में चार बार खिला कर खाया । क्या मरने के पीछे उन्हें पिंडे-पानी को तरसाता । इस प्रकार तीन मास बीत गये और असाढ़ आ पहुँचा । आकाश में घटाएँ आयी पानी गिरा, किसान हल-जुए ठीक करने लगे । बढ़ई हलों की ,मरम्मत करने लगा । गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता, कभी बाहर आता, अपने हलों को निकाल निकाल देखता; इसकी मुठिया टूट गयी इसकी फाल ढीली हो गई है, जुए में सैला नहीं है । यह देखते-देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया । दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला-रज्जू मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं, चलो बना दो । रज्जू ने उसकी ओर करुणाभाव से देखा और अपना काम करने लगा । गिरधारी को होश आ गया , नींद से चौंक पड़ा, ग्लानि से उसका सिर झुक गया, आँखें भर आयीं । चुपचाप घर चला आया । गाँव के चारों ओर हलचल मची हुई थी । कोई सन के बीज खोजता फिरता था, कोई जमींदार के चौपाल से धान के बीज लिए आता था, कहीं सलाह होती थी, किस खेत में क्या बोना चाहिए, कहीं चर्चा होती थी कि पानी बहुत बरस गया, दो-चार दिन ठहर कर बोना चाहिए । गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था ।

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एक दिन सन्ध्या समय गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजला रहा था कि मंगलसिंह आये और इधर-उधर की बातें करके बोले- गोई को बाँध कर कब तक खिलाओगे ? निकाल क्यों नहीं देते ? गिरधारी ने मलिन-भाव से कहा – हाँ, कोई गाहक आवे तो निकाल दूँ । मंगलसिंह – एक गाहक तो हमीं हैं, हमीं को दे दो । गिरधारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कि तुलसी बनिया आया और गरज कर बोला – गिरधर, तुम्हें रुपये देने हैं कि नहीं वैसा कहो । तीन महीने से हीला-हवाला करते चले आते हो । अब कौन खेती करते हो कि तुम्हारी फसल को अगोरे बैठे रहें । गिरधारी ने दीनता से कहा – साह, जैसे इतने दिनों माने हो आज और मान जाओ । कल तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा । मंगल और तुलसी ने इशारे से बातें कीं और तुलसी भुनभुनाता हुआ चला गया । तब गिरधारी मंगलसिंह से बोला – तुम इन्हें ले लो तो घर के घर ही में रह जाय । कभी-कभी आँख से देख तो लिया करूँगा । मंगल – मुझे अभी तो ऐसा कोई काम नहीं, लेकिन घर पर सलाह करूँगा । गिरधारी – मुझे तुलसी के रुपये देने हैं ,नहीं तो खिलाने को तो भूसा है । मंगल यह बढ़ा बदमाश है, कहीं नालिश न कर दें । सरल हृदय गिरधारी धमकी में आ गया । कार्य -कुशल मंगलसिंह को सस्ता सौदा करने का यह अच्छा सुअवसर मिला । 80 रु0 की जोड़ी 60 रु0 में ठीक कर ली । गिरधारी ने अब बैलों को किस आशा से बाँध कर खिलाया था । आज आशा का वह कल्पित सूत्र भी टूट गया । मंगलसिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रुपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था । आह ! यह मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन के आधार, मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करने वाले,जिनके लिए पहर रात से उठ कर छाँटी काटता था, जिनके खली-दाने की चिंता अपने खाने से ज्यादा रहती थी, जिनके लिए सारा घर दिन भर हरियाली उखाड़ा करता था । मेरे दो हाथ, अब मुझसे विदा हो रहे हैं । अब मंगलसिंह ने रुपये गिन कर रख दिये और बैलों को ले चले तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रख कर खूब फूट-फूट कर रोया । जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती, उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था । सुभागी भी दालान में खड़ी रो रही थी और छोटा लड़का मंगलसिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था । रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया । चारपाई पर पड़ा रहा । प्रातःकाल सुभागी चिलम भर कर ले गयी तो वह चारपाई पर न था । उसने समझा कहीं गये होंगे । लेकिन जब दो -तीन घड़ी दिन चढ़ आया और वह न लौटा तो उसने रोना-धोना शुरू किया । गाँव के लोग जमा हो गये, चारों ओर खोज होने लगी पर गिरधारी का पता न चला ।

(6)

संध्या हो गयी । अँधेरा छा रहा था । सुभागी ने दिया जला कर गिरधारी के सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर ताक रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई । सुभागी का हृदय धड़क उठा । वह दौड़ कर बाहर आयी, और इधर-उधर ताकने लगी । उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाद के पास सिर झुकाये खड़ा है । सुभागी बोल उठी – घर आओ, वहाँ खड़े क्या कर रहे हो, आज सारे दिन कहाँ रहे ? यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली । गिरधारी ने कुछ उत्तर नहीं दिया । वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर गायब हो गया । सुभागी चिल्लायी और मूर्छित हो कर गिर पड़ी । दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने खेत पर पहुँचे, अभी कुछ अँधेरा था । बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है वही मिर्जई, वही पगड़ी, वही सोंटा । कालिकादीन ने कहा – अरे गिरधारी ! मरदे आदमी, तुम यहाँ खड़े हो, और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है । कहाँ से आ रहे हो ? यह कहते हुए बैलों को छोड़ कर गिरधारी की ओर चले, गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछे वाले कुएँ में कूद पड़ा । कालिकादीन ने चीख मारी और हल-बैल छोड़ कर भागा । सारे गाँव में शोर मच गया, और लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे । कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी । गिरधारी को गायब हुए छः महीने बीत चुके हैं । उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्ठे पर काम करता है और 20 रु महीना घर आता है । अब वह कमीज और अँग्रेजी जूता पहनता है, घर में दोनों जून तरकारी पकती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है; लेकिन गाँव में उसका कुछ भी आदर नहीं । यह अब मजूरा है । सुभागी अब पराये गाँव में आये हुए कुत्ते की भाँति दबकती फिरती हैं । वह अब पंचायत में नहीं बैठती । वह अब मजूर की माँ है । कालिकादीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया है, क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ मँडराया करता है । अँधेरा होते ही वह मेड़ पर जा कर बैठ जाता है और कभी कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनायी देती है । वह किसी से बोलता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं । उसे केवल अपने खेतों को देख कर संतोष होता है । दिया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है । लाला ओंकारनाथ बहुत चाहते हैं कि ये खेत उठ जायँ, लेकिन गाँव के लोग अब उन खेतों का नाम लेते डरते हैं ।

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