मानसरोवर भाग 2

शाप

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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मैं बर्लिन नगर का निवासी हूँ । मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविख्यात ज्ञाता
थे । भौगोलिक अन्वेषण का शौक मुझे भी बाल्यावस्था ही से था । उनके स्वर्गवास के बाद
मुझे यह धुन सवार हुई कि पैदल पृथ्वी के समस्त देश-दशांतरों की सैर करूँ । मैं
विपुल धन का स्वामी था । वे सब रुपये एक बैंक में जमा कर दिये और उससे शर्त कर ली
कि मुझे यथा समय रुपये भेजता रहे, इस कार्य से निवृत्त हो कर मैंने सफर का सामान
पूरा किया । आवश्यक वैज्ञानिक यंत्र साथ लिये और ईश्वर का नाम लेकर चल खड़ा हुआ ।
उस समय यह कल्पना मेरे हृदय में गुदगुदी पैदा कर रही थी कि मैं वह पहला प्राणी हूँ
जिसे यह बात सूझी कि पैरौं से पृथ्वी को नापे । अन्य यात्रियों ने रेल, जहाज और
मोटरकार की शरण ली है । मैं पहला ही वह वीर-आत्मा हूँ, जो अपन पैरों के बूते पर
प्रकृति के विराट उपवन की सैर के लिए उद्यत हुआ है ।
अगर मेरे साहस और उत्साह ने यह कष्ट साद्य यात्रा पूरी कर ली तो भद्र-संसार मुझे
सम्मान और गौरव के मसनद पर बैठावेगा और अनंत काल तक मेरी कीर्ति के राग अलापे
जायेंगे । उस समय मेरा मस्तिष्क इन्हीं विचारों से भरा हुआ था । और ईश्वर को धन्य
वाद देता हूँ कि सहस्त्रों कठिनाइयों का सामना करने पर भी धैर्य ने मेरा साथ न
छोड़ा और उत्साह एक क्षण के लिए भी निरुत्साह न हुआ ।
मैं वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूँ, जहाँ निर्जनता के अतिरिक्त कोई दूसरा साथी न
था । वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूँ, जहाँ की पृथ्वी और आकाश हिम की शिलाएँ थीं ।
मैं भयंकर जंतुओं के पहलू में सोया हूँ । पक्षियों में रातें काटी हैं; किंतु ये
सारी बाधाएँ कट गयीं और वह समय अब दूर नहीं है कि साहित्य और विज्ञान-संसार मेरे
चरणों पर शीश नवायें ।
मैंने इस यात्रा में बड़े-बड़े अद्भुत दृश्य देखे और कितनी ही जातियों के आहार-
व्यवहार, रहन-सहन का अवलोकन किया ।
मेरा यात्रा-वृत्तांत, विचार, अनुभव और निरीक्षण का एक अमूल्य रत्न होगा । मैंने
ऐसी-ऐसी आश्चर्य-जनक घटनाएँ आँखों से देखी हैं, जो अलिफ-लैला की कथाओं से कम
मनोरंजक न होंगी । परंतु वह घटना जो मैंने ज्ञानसरोवर के तट पर देखी, उसका उदाहरण
मुश्किल से मिलेगा, मैं उसे कभी न भूलूँगा । यदि मेरे इस तमाम परिश्रम का उपहार यही
एक रहस्य होता तो भी मैं उसे पर्याप्त समझता । मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूँ कि
मैं मिथ्यावादी नहीं और न सिद्धियों तथा विभूतियों पर मेरा विश्वाश है । मैं उस
विद्वान का भक्त हूँ जिसका आधार तर्क और न्याय पर है । यदि कोई दूसरा प्राणी यही
घटना बयान करता तो मुझे उस पर विश्वास करने में बहुत संकोच होता, किंतु मैं जो कुछ
बयान कर रहा हूँ, वह सत्य घटना है । यदि मेरे इस आश्वासन पर भी कोई उस पर
अविश्वास करे, तो उसकी मानसिक दुर्बलता और विचारों की संकीर्णता है ।
यात्रा का सातवाँ वर्ष था और ज्येष्ठ का महीना । मैं हिमालय के दामन में ज्ञानसरोवर
के तट पर हरी-हरी घास पर लेटा हुआ था, ऋतु अत्यंत सुहावनी थी । ज्ञानसरोवर के
स्वच्छ निर्मल जल में आकाश और पर्वत श्रेणी का प्रतिबिम्ब, जलपक्षियों का पानी पर
तैरना, शुभ्र हिमश्रेणी का सूर्य के प्रकाश से चमकना आदि दृश्य ऐसे मनोहर थे कि मैं
आत्मोल्लास से विह्वल हो गया । मैंने स्विटजरलैंड और अमेरिका के बहुप्रशंसित दृश्य
देखे है , पर उनमें यह शांतिप्रद शोभा कहाँ ! मानव बुद्धि ने उनके प्राकृतिक
सौंदर्य को अपनी कृत्रिमता से कलंकित कर दिया है । मैं तल्लीन हो कर इस स्वर्गीय
आनंद का उपभोग कर रहा था कि सहसा मेरी दृष्टि एक सिंह पर जा पड़ी, जो मंदगति से
कदम बढ़ाता हुआ मेरी ओर आ रहा था । उसे देखते ही मेरा खून सूख गया, होश उड़
गये । ऐसा वृहदाकार भयंकर जंतु मेरी नजर से न गुजरा था । वहाँ ज्ञान सरोवर के
अतिरिक्त कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ भाग कर अपनी जान बचाता । मैं तैरने में कुशल
हूँ, पर मैं ऐसा भयभीत हो गया कि अपने स्थान से हिल न सका । मेरे अंग-प्रत्यंग मेरे
काबू से बाहर थे । समझ गया कि मेरी जिंदगी यहीं तक थी । इस शेर के पंजे से बचने
की कोई आशा न थी । अकस्मात् मुझे स्मरण हुआ कि मेरी जेब में एक पिस्तौल गोलियों
से भरी हुई रखी है, जो मैंने आत्मरक्षा के लिए चलते समय साथ ले ली थी, और अब तक
प्राणपण से इसकी रक्षा करता आया था ।
आश्चर्य है कि इतनी देर तक मेरी स्मृति कहाँ सोई रही । मैंने तुरंत ही पिस्तौल
निकाली और निकट था कि शेर पर वार करूँ कि मेरे कानों में यह शब्द सुनायी दिये,
“मुसाफिर ईश्वर के लिए वार न करना अन्यथा मुझे दुःख होगा । सिंहराज से तुझे हानि न
पहुँचेगी ।”
मैंने चकित होकर पीछे की ओर देखा तो एक युवती रमणी आती हुई दिखायी दी । उसके एक
हाथ में सोने का लोटा था और दूसरे में एक तश्तरी । मैंने जर्मनी की हूरें और कोहकाफ
की परियाँ देखी हैं; पर हिमांचल पर्वत की यह अप्सरा मैंने एक ही वार देखी और उसका
चित्र आज तक हृदय-पट पर खिंचा हुआ है । मुझे स्मरण नहीं कि ‘रफेल’ या `कोरेजियो’ ने
भी कभी ऐसा चित्र खींचा हो । वैंडाइक’ और `रेमब्राँड’ के आकृति-चित्रों ने भी ऐसी
मनोहर छवि नहीं देखी । पिस्तौल मेरे हाथ से गिर पड़ी । कोई दूसरी शक्ति इस समय मुझे
अपनी भयावह परिस्थिति से निश्चिंत न कर सकती थी ।
मैं उस सुंदरी की ओर देख ही रहा था की वह सिंह के पास आयी । सिंह उसे देखते ही खड़ा
हो गया और मेरी ओर सशंक नेत्रों से देख कर मेघ की भाँति गरजा । रमणी ने एक रूमाल
निकाल कर उसका मुँह पोंछा और फिर लोटे से दूध उँडेल कर उसके सामने रख दिया ।
सिंह दूध पीने लगा । मेरे विस्मय का अब कोई सीमा न थी । चकित था कि यह कोई
तिलिस्म है या जादू । व्यवहार-लोक में हूँ अथवा विचार-लोक में । सोता हूँ या
जागता । मैंने बहुधा सरकसों में पालतू शेर देखे हैं, किंतु उन्हें काबू में रखने के
लिए किन किन रक्षा-विधानों से काम लिया जाता है ! उसके प्रतिकूल यह माँसाहारी
पशु उस रमणी के सम्मुख इस भाँति लेटा हुआ है मानो वह सिंह की योनि में कोई मृग
-शावक है । मन में प्रश्न हुआ, सुंदरी में कौन-सी चमत्कारिक शक्ति है जिसने सिंह को
इस भाँति वशीभूत कर लिया ? क्या पशु भी अपने हृदय में कोमल और रसिक-भाव छिपाये
रखते हैं ? कहते हैं कि महुअर का अलाप काले नाग को भी मस्त कर देता है । जब ध्वनि
में यह सिद्धि है तो सौंदर्य की शक्ति का अनुमान कौन कर सकता है । रूप-लालित्य
संसार का सब से अमूल्य रत्न है, प्रकृति के रचना-नैपुण्य का सर्वश्रेष्ठ अंश है ।
जब सिंह दूध पी चुका तो सुंदरी ने रूमाल से उसका मुँह पोंछा और उसका सिर अपने जाँघ
पर रख उसे थपकियाँ देने लगी । सिंह पूँछ हिलाता था और सुंदरी की अरुणावर्ण हथेलियों
को चाटता था । थोड़ी देर के बाद दोनों एक गुफा में अंतर्हित हो गये । मुझे भी धुन
सवार हुई कि किसी प्रकार इस तिलिस्म को खोलूँ, इस रहस्य का उद्घाटन करूँ । जब
दोनों अदृश्य हो गये तो मैं भी उठा और दबे पाँव उस गुफा के द्वार तक जा पहुँचा । भय
से मेरे शरीर की बोटी बोटी काँप रही थी, मगर इस रहस्यपट को खोलने की उत्सुकता भय
को दबाये हुए थी । मैंने गुफा के भीतर झाँका तो क्या देखता हूँ कि पृथ्वी पर जरी का
फर्श बिछा हुआ हैं और कारचोबी गाव-तकिये लगे हुए हैं । सिंह मसनद पर गर्व से बैठा
हुआ है । सोने-चाँदी के पात्र, सुंदर चित्र, फूलों के गमले सभी अपने-अपने स्थान पर
सजे हुए हैं, वह गुफा राजभवन को भी लज्जित कर रही है ।
द्वार पर मेरी परछाईं देखकर वह सुंदरी बाहर निकल आयी और मुझसे कहा, ” यात्री तू
कौन है और इधर क्यों कर आ निकला ?”
कितनी मनोहर ध्वनि थी । मैंने अबकी बार समीप से देखा तो सुंदरी का मुख कुम्हलाया
हुआ था । उसके नेत्रों से निराशा झलक रही थी, उसके स्वर में भी करुणा और व्यथा की
खटक थी । मैंने उत्तर दिया, “देवी, मैं यूरोप का निवासी हूँ, यहाँ देशाटन करने आया
हूँ । मेरा परम सौभाग्य है कि आप से सम्भाषण करने का गौरव प्राप्त हुआ ।” सुन्दरी
के गुलाब से ओठों पर मधुर मुसकान की झलक दिखायी दी, उसमें कुछ कुटिल हास्य का
भी अंश था । कदाचित यह मेरे इस अस्वाभाविक वाक्य-प्रणाली का द्योतक था । “तू विदेश
से यहाँ आया है । आतिथ्य-सत्कार हमारा कर्तव्य है । मैं आज तेरा निमंत्रण करती हूँ,
स्वीकार कर ।’
मैंने अवसर देख कर उत्तर दिया, “आपकी यह कृपा मेरे लिए गौरव की बात है, पर इस
रहस्य ने मेरी भूख-प्यास बंद कर दी है । क्या मैं आशा करूँ कि आप इस पर कुछ प्रकाश
डालेंगी ?”
सुंदरी ने ठंडी साँस लेकर कहा “मेरी रामकहानी विपत्ति की एक बड़ी कथा है; तुझे सुन
कर दुःख होगा ।” किंतु मैंने जब बहुत आग्रह किया तो उसने मुझे फर्श पर बैठने का
संकेत किया और अपना वृत्तांत सुनाने लगी ;–
“मैं कश्मीर देश की रहनेवाली राजकन्या हूँ । मेरा विवाह राजपूत योद्धा से हुआ था ।
उनका नाम नृसिंहदेव था । हम दोनों बड़े आनंद से जीवन व्यतीत करते थे । संसार का
सर्वोत्तम पदार्थ रूप है, दूसरा स्वास्थ्य और तीसरा धन । परमात्मा ने हमको ये तीनों
ही पदार्थ प्रचुर परिणाम में प्रदान किये थे । खैद है कि मैं उनसे मुलाकात नहीं करा
सकती । ऐसा साहसी, ऐसा सुंदर, ऐसा विद्वान पुरुष सारे काश्मीर में न था । मैं उनकी
आराधना करती थी । उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह था । कई वर्षों तक हमारा जीवन एक
जलस्त्रोत की भाँति वृक्ष-पुंजों और हरे-हरे मैदानों में प्रवाहित होता रहा ।
मेरे पड़ोस में एक मंदिर था । पुजारी एक पंडित श्रीधर थे । हम दोनों प्रातःकाल तथा
संध्या समय उस मंदिर में उपासना के लिए जाते । मेरे स्वामी कृष्ण भक्त थे । मंदिर
एक सुरम्य सागर के तट पर बना हुआ था । वहाँ की परिष्कृत मंद समीर चित्त को पुलकित
कर देती थी । इसीलिए हम उपासना के पश्चात् भी वहाँ घंटों वायुसेवन करते रहते थे ।
श्रीधर बड़े विद्वान, वेदों के ज्ञाता, शास्त्रों के जानने वाले थे । कृष्ण पर उनकी
भी अविचल भक्ति थी । समस्त काश्मीर में उनके पांडित्य की चर्चा थी । वह बड़े संयमी,
संतोषी, आत्मज्ञानी पुरुष थे । उनके नेत्रों से शांति की ज्योति रेखाएँ निकलती हुई
मालूम होती थीं । सदैव परोपकार में मग्न रहते थे । उनकी वाणी ने कभी किसी का हृदय
नहीं दुखाया । उनका हृदय नित्य परवेदना से पीड़ित रहता था ।
पंडित श्रीधर मेरे पतिदेव से लगभग दस वर्ष बड़े थे ; पर उनकी धर्मपत्नी विद्याधरी
मेरी समवयस्का थीं । हम दोनों सहेलियाँ थीं । विद्याधरी अत्यंत गंभीर, शांत प्रकृति
की स्त्री थी । यद्यपि रंग-रूप में वही रानी थीं , पर वह अपनी अवस्था से संतुष्ट
थीं । अपने पति को वह देवतुल्य समझती थीं ।
श्रावण का महीना था । आकाश पर काले-काले बादल मँडरा रहे थे, मानो काजल के पर्वत
उड़े जा रहे हैं । झरनों से दूध की धारें निकल रही थीं और चारों ओर हरियाली छाई
हुई थी । नन्हीं-नन्हीं फुहारें पड़ रही थीं, मानो स्वर्ग से अमृत की बूँदें टपक
रही हैं । जल की बूँदें फूलों और पत्तियों के गले में चमक रही थीं । चित्त को अभि
लाषाओं से उभारनेवाला समा छाया हुआ था ।यह वह समय है जब रमणियों को विदेशगामी
प्रियतम की याद रुलाने लगती है,
जब हृदय किसी से आलिंगन करने के लिए व्यग्र हो जाता है । जब सूनी सेज देख कर कलेजे
में हूक-सी उठती है । इसी ऋतु में विरह की मारी वियोगिनी अपनी बीमारी का बहाना करती
हैं, जिसमें उसका पति उसे देखने आवे । इसी ऋतु में माली की कन्या धानी साड़ी पहन कर
क्यारियों में इठलाती हुई चम्पा और बेले के फूलों से आँचल भरती है, क्योंकि हार और
गजरों की माँग बहुत बढ़ जाती है । मैं और विद्याधरी ऊपरी छत पर बैठी हुई वर्षा ऋतु
की बहार देख रही थीं और कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ती थी कि इतने में मेरे पति ने आ कर
कहा, “आज बड़ा सुहावना दिन है । झूला झूलने में बड़ा आनंद आयेगा ।” सावन में झूला
झूलने का प्रस्ताव क्योंकर रद्द किया जा सकता था । इन दिनों प्रत्येक रमणी का चित्त
आप ही आप झूला झूलने के लिए विकल हो जाता है । जब वन के वृक्ष झूला झूलते हों, जल
की तरंगे झूला झूलती हों और गगन-मंडल के मेघ झूला झूलते हों, जब सारी प्रकृति आंदो
लित हो रही हो तो रमणी का कोमल हृदय क्यों न चंचल हो जाय ! विद्याधरी भी राजी हो
गयी । रेशम की डोरियाँ कदम की डाल पर पड़ गयीं, चंदन का पटरा रख दिया गया और
मैं विद्याधरी के साथ झूला झूलने चली । जिस प्रकार ज्ञानसरोवर पवित्र जल से परि
पूर्ण हो रहा है, उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनंद से परिपूर्ण थे । किंतु शोक !
वह कदाचित् मेरे सौभाग्यचंद्र की अंतिम झलक थी । मैं झूले के पास पहुँच कर पटरे पर
जा बैठी ; किंतु कोमलांगी विद्याधरी ऊपर न आ सकी । वह कई बार उचकी, परंतु पटरे तक
न आ सकी । तब मेरे पतिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली ! उस समय
उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक थी और मुख पर एक विचित्र आतुरता । वह
धीमे में मल्हार गा रहे थे; किंतु विद्याधरी जब पटरे पर आयी तो उसका मुख डूबते हुए
सूर्य की भाँति लाल हो रहा था, नेत्र अरुणवर्ण हो रहे थे । उसने पतिदेव की ओर
क्रोधोन्मत्त हो कर कहा —
” तूने काम के वश हो कर मेरे शरीर में हाथ लगाया है । मैं अपने पातिव्रत के बल से
तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा ।”
यह कहते ही विद्याधरी ने अपने गले से रुद्राक्ष की माला निकाल कर मेरे पतिदेव के
ऊपर फेंक दी और तत्क्षण ही पटरे के समीप मेरे पतिदेव के स्थान पर एक विशाल
सिंह दिखलाई दिया ।

(2)

ऐ मुसाफिर, अपने प्रिय पतिदेवता की यह गति देखकर मेरा रक्त सूख गया और कलेजे पर
बिजली-सी आ गिरी । मैं विद्याधरी के पैरों से लिपट गयी और फूट फूट कर रोने लगी । उस
समय अपनी आँखों से देखकर अनुभव हुआ कि पातिव्रत की महिमा कितनी प्रबल है । ऐसी
घटनाएँ मैंने पुराणों में पढ़ी थीं, परन्तु मुझे विश्वास न था कि वर्त्तमान काल में
जबकि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में स्वार्थ की मात्रा दिनों-दिन अधिक होती जाती है,
पातिव्रत धर्म में यह प्रभाव होगा; परंतु यह नहीं कह सकती कि विद्याधरी के विचार
कहाँ तक ठीक थे । मेरे पति विद्याधरी को सदैव बहिन कहकर संबोधित करते थे । वह
अत्यंत स्वरूपवान थे और रूपवान पुरुष की स्त्री का जीवन बहुत सुखमय नहीं होता; पर
मुझे उन पर संशय करने का अवसर कभी नहीं मिला । वह स्त्री व्रत धर्म का वैसा ही पालन
करते थे जैसे सती अपने धर्म का । उनकी दृष्टि में कुचेष्टा न थी और विचार अत्यंत
उज्ज्वल और पवित्र थे । यहाँ तक कि कालिदास की श्रृंगारमय कविता भी उन्हें प्रिय न
थी , मगर काम के मर्मभेदी बाणों से कौन बचा है ! जिस काम ने शिव, ब्रह्मा जैसे
तपस्वियों की तपस्या भंग कर दी, जिस काम ने नारद और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के
माथे पर कलंक का टीका लगा दिया, वह काम सब कुछ कर सकता है । संभव है कि
सुरापान के उद्दीपक ऋतु के साथ मिलकर वह उनके चित्त को विचलित कर दिया हो । मेरा
गुमान तो यह है कि यह विद्याधरी की केवल भ्रांति थी । जो कुछ भी हो, उसने शाप दे
दिया । उस समय मेरे मन में भी उत्तेजना हुई कि जिस शक्ति की विद्याधरी को गर्व है,
क्या वह शक्ति मुझमें नहीं है ? क्या मैं पातिव्रत नहीं हूँ ? किन्तु हा, मैंने
कितना ही चाहा कि शाप के शब्द मुँह से निकालूँ, पर मेरी जबान बंद हो गयी । अखंड
विश्वास जो विद्याधरी को अपने पातिव्रत पर था, मुझे न था ? विवशता ने मेरे प्रतिकार
के आवेग को शांत कर दिया । मैंने बड़ी दीनता के साथ कहा–बहिन, तुमने यह क्या
किया ?
विद्याधरी ने निर्दय होकर कहा–मैंने कुछ नहीं किया । यह उसके कर्मों का फल है ।
मैं – तुम्हें छोड़ कर और किसकी शरण में जाऊँ, क्या तुम इतनी दया न करोगी ?
विद्याधरी – मेरे किये अब कुछ नहीं हो सकता ।
मैं – देवी, तुम पातिव्रतधारिणी हो, तुम्हारे वाक् की महिमा अपार है । तुम्हारा
क्रोध यदि मनुष्य से पशु बना सकता है, तो क्या तुम्हारी दया पशु से मनुष्य न बना
सकेगी ?
विद्याधरी – प्रायश्चित् करो । इसके अतिरिक्त उद्धार का और कोई उपाय नहीं ।
ऐ मुसाफिर, मैं राजपूत की कन्या हूँ । मैंने विद्याधरी से अधिक अनुनयविनय नहीं की ।
उसका हृदय दया का आगार था । यदि मैं उसके चरणों पर शीश रख देती तो कदाचित् उसे
मुझ पर दया आ जाती; किन्तु राजपूत की कन्या इतना अपमान नहीं सह सकती । वह घृणा
के भाव सह सकती है, क्रोध की अग्नि सह सकती है, पर दया का बोझ उससे नहीं उठाया
जाता । मैंने पटरे से उतर कर पतिदेव के चरणों पर सिर झुकाया और उन्हें साथ लिये
हुए अपने मकान चली आयी ।
कई महीने गुजर गये । मैं पतिदेव की सेवा-शुश्रूषा में तन-मन से व्यस्त रहती ।
यद्यपि उनकी जिह्वा वाणीविहीन हो गयी थी, पर उनकी आकृति से स्पष्ट प्रकट होता है
कि वह अपने कर्म से लज्जित थे । यद्यपि उनका रूपांतर हो गया था; पर उन्हे मास में
अत्यंत घृणा थी । मेरी पशुशाला में सैकड़ों गाये-भैंसे थीं, किंतु शेरसिंह ने कभी
किसी की और आँख उठा कर भी न देखा । मैं उन्हें दोनों बेला दूध पिलाती और संध्या समय
उन्हें साथ लेकर पहाड़ियों की सैर कराती । मेरे मन में न जाने क्यों धैर्य और साहस
का इतना संचार हो गया था कि मुझे अपनी दशा असह्य न जान पड़ती थी । मुझे निश्चय था
कि शीघ्र ही इस विपत्ति का अंत भी होगा ।
इन्हीं दिनों हरिद्वार में गंगा-स्नान का मेला लगा । मेरे नगर से यात्रियों का एक
समूह हरिद्वार चला । मैं भी उनके साथ हो ली । दीन-दुखी जनों को दान देने के लिए
रुपयों और अशर्फियों की थैलियाँ साथ ले लीं । मैं प्रायश्चित करने जा रही थी, इसलिए
पैदल ही यात्रा करने का निश्चय कर लिया । लगभग एक महीने में हरिद्वार जा पहुँची ।
यहाँ भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत से असंख्य यात्री आये थे ।संन्यासियों और श्रेष्ठ
íतपस्वियों की संख्या गृहस्थों से कुछ ही कम होगी । धर्मशाला में रहने का स्थान न
मिलता था । गंगातट पर, पर्वतों की गोद में, मैदानों के वक्षःस्थल पर, जहाँ देखिए
आदमी ही आदमी नजर आते थे । दूर से वह छोटे छोटे खिलौने की भाँति दिखायी देते
थे । मीलों तक आदमियों का फर्श-सा बिछा हुआ था । भजन और कीर्तन की ध्वनि नित्य
कानों में आती रहती थी । हृदय में असीम शुद्धि गंगा की लहरों की भाँति लहरे मारती
थीं । वहाँ का जल,वायु आकाश सब शुद्ध था ।
मुझे हरिद्वार आये तीन दिन व्यतीत हुए थे । प्रभात का समय था । मैं गंगा में खड़ी
स्नान कर रही थी । सहसा मेरी दृष्टि ऊपर की ओर उठी तो मैंने किसी आदमी को पुल
की ओर झाँकते देखा । अकस्मात् उस मनुष्य का पाँव ऊपर उठ गया और सैकड़ों ही गज
की ऊँचाई से गंगा में गिर पड़ा । सहस्त्रों आँखें यह दृश्य देख रही थी; पर किसी का
साहस न हुआ कि उस अभागे मनुष्य की जान बचाये । भारतवर्ष के अतिरिक्त ऐसा समवेदना
शून्य और कौन देश होगा और यह वह देश है जहाँ परमार्थ मनुष्य का कर्तव्य बताया गया
है लोग बैठे हुए अपंगुओं की भाँति तमाशा देख रहे थे । सभी हतबुद्धि से हो रहे थे ।
धारा प्रबल वेग से प्रवाहित थी और जल बर्फ से भी अधिक शीतल । मैंने देखा कि वह धारा
के साथ बहता चला जाता था । यह हृदय-विदारक दृश्य मुझसे न देखा गया । मैं तैरने में
अभ्यस्त थी । मैंने ईश्वर का नाम लिया और मन को दृढ़ करके धारा के साथ तैरने लगी ।
ज्यों ही मैं आगे बढ़ती थी, वह मनुष्य मुझसे दूर होता जाता था । यहाँ तक मेरे सारे
अंग ठंड से शून्य हो गये ।
मैंने कई बार चट्टानों को पकड़ कर दम लिया, कई बार पत्थरों से टकरायी । मेरे हाथ
ही न उठते थे । सारा शरीर बर्फ का ढाँचा-सा बना हुआ था । मेरे अंग गतिहीन हो गये कि
मैं धारा के साथ बहने लगी और मुझे विश्वास हो गया कि गंगामाता के उदर ही में मेरी
जल-समाधि होगी ।
अकस्मात् मैंने उस पुरुष की लाश को चट्टान पर रुकते देखा । मेरा हौसला बँध गया ।
शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हुआ । मैं जोर लगा कर प्राणपण से उस चट्टान
पर जा पहुँची और उसका हाथ पकड़ कर खींचा । मेरा कलेजा धक् से हो गया । यह श्रीधर
पंडित थे ।
ऐ मुसाफिर, मैंने यह काम प्राणों को हथेली पर रख कर पूरा किया । जिस समय मैं पंडित
श्रीधर की अर्धमृत देह लिए तट पर आयी तो सहस्त्रों मनुष्यों की जयध्वनि से आकाश
गूँज उठा । कितने ही मनुष्यों ने चरणों पर सिर झुकाये । अभी लोग श्रीधर को होश में
लाने के उपाय कर ही रहे थे कि विद्याधरी मेरे सामने आ कर खड़ी हो गयी । उसका मुख,
प्रभात के चंद्र की भाँति कांतिहीन हो रहा था, होंठ सूखे हुए, बाल बिखरे हुए ।
आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी । वह जोर से हाँफ रही थी, दौड़ कर मेरे पैरों
से चिमट गयी, किन्तु दिल खोल कर नहीं, निर्मल भाव से नहीं । एक की आँखें गर्व से
भरी हुई थीं और दूसरे की ग्लानि से झुकी हुई । विद्याधरी के मुँह से बात न निकलती
थी । केवल इतना बोली – `बहिन, ईश्वर तुमको इस सत्कार्य का फल दें ।’

(4)

ऐ मुसाफिर , यह शुभकामना विद्याधरी के अंतस्थल से निकली थी । मैं उसके मुँह से यह
आशीर्वाद सुनकर फूली न समायी । मुझे विश्वास हो गया कि अबकी बार जब मैं अपने मकान
पर पहुँचूँगी तो पतिदेव मुस्कराते हुए मुझसे गले मिलने के लिए द्वार पर आयेंगे । इस
विचार से मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी । मैं शीघ्र ही स्वदेश को चल पड़ी ।
उत्कंठा मेरे कदम बढ़ाये जाती थी । मैं दिन में भी चलती और रात को भी चलती,
मगर पैर थकना ही न जानते थे । यह आशा कि वह मोहनी मूर्ति द्वार पर मेरा स्वागत करने
के लिए खड़ी होगी, मेरे पैरों में पर-से लगाये हुए थी । एक महीने की मंजिल मैंने एक
सप्ताह में तय की । पर शोक ! जब मकान के पास पहुँची, तो उस घर को देखकर दिल
बैठ गया और हिम्मत न पड़ी कि अंदर कदम रखूँ !
मैं चौखट पर बैठ कर विलाप करती रही । न किसी नौकर का पता, न कहीं पाले हुए पशु ही
दिखायी देते थे । द्वार पर धूल उड़ रही थी । जान पड़ता था कि पक्षी घोंसले से उड़
गया है, कलेजे पर पत्थर की सिल रख कर भीतर गयी तो क्या देखती हूँ कि मेरा प्यारा
सिंह आँगन में मोटी-मोटी जंजीरों से बँधा हुआ है । इतना दुर्बल हो गया है कि उसके
कूल्हों की हड्डियाँ दिखायी दे रही हैं । ऊपर-नीचे जिधर देखती थी, उजाड़-सा मालूम
होता था । मुझे देखते ही शेरसिंह ने पूँछ हिलायी और सहसा उनकी आँखें दीपक की भाँति
चमक उठीं । मैं दौड़कर उनके गले से लिपट गयी, समझ गयी कि नौकरों ने दगा की । घर
की सामग्रियों का कहीं पता न था । सोने-चाँदी के बहुमूल्य पात्र,फर्श आदि सब गायब
थे । हाय ! हत्यारे मेरे आभूषणों का संदूक भी उठा ले गये । इस अपहरण ने मुसीबत
का प्याला भर दिया । शायद पहले उन्होंने शेरसिंह को जकड़ कर बाँध दिया होगा, फिर
खूब दिल खोल कर नोच-खसोट की होगी । कैसी विडम्बना थी कि धर्म लूटने गयी थी और
धन लुटा बैठी । दरिद्रता ने पहली बार अपना भयंकर रूप दिखलाया ।
ऐ मुसाफिर, इस प्रकार लुट जाने के बाद वह स्थान आँखों में काँटे की तरह खटकने लगा ।
यही वह स्थान था, जहाँ हमने आनंद के दिन काटे थे । इन्ही क्यारियों में हमने मृगों
की भाँति कलोल किये थे । प्रत्येक वस्तु से कोई न कोई स्मृति सम्बन्धित थी । उन
दिनों की याद करके आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते थे । बसंत की ऋतु थी, बौर की
महक से वायु सुगंधित हो रही थी । महुए के वृक्षों के नीचे परियों के शयन करने के
लिए मोतियों की शय्या बिछी हुई थी । करौंदों और नीबू के फूलों की सुगंधि से चित्त
प्रसन्न हो जाता था । मैंने अपनी जन्म-भूमि को सदैव के लिए त्याग दिया । मेरी आँखों
से आँसुओं की एक बूँद भी न गिरी । जिस जन्म-भूमि की याद यावज्जीवन हृदय को
व्यथित करती रहती है, उससे मैंने यों मुँह मोड़ लिया मानों कोई बंदी कारागार से
मुक्त हो जाय । एक सप्ताह तक मैं चारों ओर भ्रमण करके अपने भावी निवासस्थान
का निश्चय करती रही । अंत में सिंधु नदी के किनारे एक निर्जन स्थान मुझे पसंद आया ।
यहाँ एक प्राचीन मंदिर था । शायद किसी समय में वहाँ देवताओं का वास था; पर इस
समय वह बिलकुल उजाड़ था ।
देवताओं ने काल को विजय किया हो; पर समय-चक्र को नहीं । शनैः शनैः मुझे इस स्थान
से प्रेम हो गया और वह स्थान पथिकों के लिए धर्मशाला बन गया ।
मुझे वहाँ रहते तीन वर्ष व्यतीत हो चुके थे । वर्षा ऋतु में एक दिन संध्या के समय
मुझे मंदिर के सामने से एक पुरुष घोड़े पर सवार जाता दिखायी दिया । मंदिर से प्रायः
दो सौ गज की दूरी पर एक रमणीक सागर था, उसके किनारे चिनार वृक्षों के झुरमुट थे ।
वह सवार उस झुरमुट में जा कर अदृश्य हो गया । अंधकार बढ़ता जाता था । एक क्षण
के बाद मुझे उस ओर किसी मनुष्य का चीत्कार सुनायी दिया, फिर बंदूको के शब्द सुनायी
दिये और उनकी ध्वनि से पहाड़ गूँज उठा ।
ऐ मुसाफिर, यह दृश्य देख कर मुझे किसी भीषण घटना का संदेह हुआ । मैं तुरंत उठ खड़ी
हुई । एक कटार हाथ में ली और उस सागर की ओर चल दी ।
अब मूसलाधार वर्षा होने लगी थी, मानो आज के बाद फिर कभी न बरसेगा । रह रह कर
गर्जन की ऐसी भयंकर ध्वनि उठती थी, मानो सारे पहाड़ आपस में टकरा गये हों । बिजली
की चमक ऐसी तीव्र थी, मानो संसार-व्यापी प्रकाश सिमट कर एक हो गया हो । अंधकार
का यह हाल था मानों सहस्त्रों अमावस्या की रातें गले मिल रही हों । मैं कमर तक पानी
में चलते दिल को सम्हाले हुए आगे बढ़ती जाती थी । अंत में सागर के समीप आ पहुँची ।
बिजली की चमक ने दीपक का काम किया । सागर के किनारे एक बड़ी-सी गुफा थी ।
इस समय उस गुफा में से प्रकाश-ज्योति बाहर आती हुई दिखायी देती थी । मैंने भीतर
की ओर झाँका तो क्या देखती हूँ कि एक बड़ा अलाव जल रहा है । उसके चारों ओर बहुत
से आदमी खड़े हुए हैं और एक स्त्री आग्नेय नेत्रों से घूर घूर कर कह रही है, “मैं
अपने पति के साथ उसे भी जला कर भस्म कर दूँगी ।” मेरे कुतूहल की कोई सीमा न रही ।
मैंने साँस बंद कर ली और हत्बुद्धि की भाँति यह कौतुक देखने लगी । उस स्त्री के
सामने एक रक्त से लिपटी हुई लाश पड़ी थी और लाश के समीप ही मनुष्य रस्सियों से बँधा
हुआ सिर झुकाये बैठा था । मैंने अनुमान किया कि यह वही अश्वारोही पथिक है, जिस पर
इन डाकुओं ने आघात किया था ।
यह शव डाकू सरदार का है और यह स्त्री डाकू की पत्नी है । उसके सिर के बाल बिखरे हुए
थे और आँखों से अँगारे निकल रहे थे । हमारे चित्रकारों ने क्रोध को पुरुष कल्पित
किया है । मेरे विचार में स्त्री का क्रोध इससे कहीं घातक, कहीं विध्वंसकारी होता
है । क्रोधोन्मत्त हो कर वह कोमलाँगी सुन्दरी ज्वालाशिखर बन जाती है ।
उस स्त्री ने दाँत पीसकर कहा, “मैं अपने पति के साथ इसे भी जला कर भस्म कर दूँगी ।”
यह कह कर उसने उस रस्सियों से बँधे हुए पुरुष को घसीटा और दहकती हुई चिता में डाल
दिया । आह ! कितना भयंकर; कितना रोमांचकारी दृश्य था । स्त्री ही अपनी द्वेष को
अग्नि शांत करने में इतनी पिशाचिनी हो सकती है । मेरा रक्त खौलने लगा । अब एक क्षण
भी विलंब करने का अवसर न था । मैंने कटार खींच लीं, डाकू चौंक कर तितर-बितर हो गये,
समझे मेरे साथ और लोग भी होंगे । मैं बेधड़क चिता में घुस गयी और क्षणमात्र में उस
अभागे पुरुष को अग्नि के मुख से निकाल लायी । अभी केवल उसके वस्त्र ही जले थे ।
जैसे सर्प अपना शिकार छिन जाने से फुफकारता हुआ लपकता है, उसी प्रकार गरजती हुई
लपटें मेरे पीछे दौड़ीं । ऐसा प्रतीत होता था कि अग्नि भी उसके रक्त की प्यासी हो
रही थी ।
इतने में डाकू सम्हल गये और आहत सरदार की पत्नी पिशाचिनी की भाँति मुँह खोले मुझ
पर झपटी । समीप था कि ये हत्यारे मेरी बोटियाँ कर दें कि इतने में गुफा के द्वार पर
मेघ गर्जन की-सी ध्वनि सुनायी दी और शेरसिंह रौद्ररूप धारण किये हुए भीतर पहुँचे ।
उनका भयंकर रूप देखते ही डाकू अपनी अपनी जान ले कर भागे । केवल डाकू सरदार की
पत्नी स्तम्भित सी अपने स्थान पर खड़ी रही । एकाएक उसने अपने पति का शव उठाया और
उसे लेकर चिता में बैठ गयी । देखते देखते उसका भयंकर रूप अग्निज्वाला में विलीन हो
गया । अब मैंने उस बँधे हुए मनुष्य की ओर देखा तो मेरा हृदय उछल पड़ा । यह पंडित
श्रीधर थे । मुझे देखते ही सिर झुका लिया और रोने लगे । मैं उसके समाचार पूछ ही रही
थी कि उसी गुफा के एक कोने से किसी के कराहने का शब्द सुनायी दिया । जा कर देखा
तो एक सुंदर युवक रक्त से लथपथ पड़ा था । मैंने उसे देखते ही पहचान लिया ।
उसका पुरुषवेश उसे छिपा न सका । यह विद्याधरी थी । मर्दों के वस्त्र उस पर खूब सजते
थे । वह लज्जा और ग्लानि की मूर्ति बनी हुई थी । वह पैरों पर गिर पड़ी, पर मुँह से
कुछ न बोली ।
उस गुफा में पल भर भी ठहरना अत्यंत शंकाप्रद था । न जाने कब डाकू फिर सशस्त्र हो कर
आ जायँ । उधर चिताग्नि भी शांत होने लगी और उस सती की भी भीषण काया अत्यंत तेज
रूप धारण करके हमारे नेत्रों के सामने तांडव क्रीड़ा करने लगी । मैं बड़ी चिन्ता
में पड़ी कि इन दोनों प्राणियों को कैसे वहाँ से निकालूँ । दोनों ही रक्त से चूर
थे । शेरसिंह ने मेरा असमंजस ताड़ लिया । रूपांतर हो जाने के बाद उनकी बुद्धि बड़ी
तीव्र हो गयी थी । उन्होंने मुझे संकेत किया कि दोनों को हमारी पीठ पर बिठा दो ।
पहले तो मैं उनका आशय न समझी, पर जब उन्होंने संकेत को बार-बार दुहराया तो मैं
समझ गयी । गूँगों के घरवाले ही गूँगों की बातें खूब समझते हैं । मैंने पंडित श्रीधर
को गोद में उठा कर शेरसिंह की पीठ पर बिठा दिया । उसके पीछे विद्याधरी को भी बिठाया
नन्हा बालक भालू की पीठ पर बैठ कर कितना डरता है, उससे कहीं ज्यादा यह दोनों प्राणी
भयभीत हो रहे थे । चिंताग्नि के क्षीण प्रकाश में उनके भयविकृत मुख देखकर विनोद
होता था । अस्तु मैं इन दोनों प्राणियों को साथ ले कर गुफा से निकली और फिर उसी
तिमिर-सागर को पार करके मंदिर आ पहुँची ।
मैंने एक सप्ताह तक उनका यहाँ यथाशक्ति सेवासत्कार किया । जब वह भली-भाँति स्वस्थ
हो गये तो मैंने उन्हें बिदा किया । ये स्त्री पुरुष कई आदमियों के साथ टेढ़ी जा
रहे थे, यहाँ के राजा पंडित श्रीधर के शिष्य हैं । पंडित श्रीधर का घोड़ा आगे था !
विद्याधरी का अभ्यास न होने के कारण पीछे थी, उनके दोनों रक्षक भी उनके साथ थे ।
जब डाकुओं ने पंडित श्रीधर को घेरा और पंडित ने पिस्तौल से डाकू सरदार को गिराया तो
कोलाहल सुन कर विद्याधरी ने घोड़ा बढ़ाया । दोनों रक्षक तो जान ले कर भागे,
विद्याधरी को डाकुओं ने पुरुष समझ कर घायल कर दिया और तब दोनों प्राणियों को बाँध
कर गुफा में डाल दिया । शेष बातें मैंने अपनी आँखों देखीं । यद्यपि यहाँ से विदा
होते समय विद्याधरी का रोम रोम मुझे आशीर्वाद दे रहा था । पर हाँ ! अभी प्रायश्चित
पूरा न हुआ था । इतना आत्म-समर्पण करके भी मैं सफल मनोरथ न हुई थी ।

(5)

ऐ मुसाफिर , उस प्रान्त में अब मेरा रहना कठिन हो गया । डाकू बंदूकें लिए हुए
शेरसिंह की तलाश में घूमने लगे । विवश होकर एक दिन मैं वहाँ से चल खड़ी हुई और
दुर्गम पर्वतों को पार करती हुई यहाँ आ निकली । यह स्थान मुझे ऐसा पसंद आया कि
मैंने इस गुफा को अपना घर बना लिया है । आज पूरे तीन वर्ष गुजरे जब मैंने पहले-पहल
ज्ञानसरोवर के दर्शन किये । उस समय भी यही ऋतु थी । मैं ज्ञानसरोवर में पानी भरने
गयी हुई थी, सहसा क्या देखती हूँ कि एक युवक मुश्की घोड़े पर सवार रत्न जटित
आभूषण पहने हाथ में चमकता हुआ भाला लिये चला आता है । शेरसिंह को देखकर वह
ठिठका और भाला सम्भाल कर उन पर वार कर बैठा । शेरसिंह को भी क्रोध आया ।
उनके गरज की ऐसी गगनभेदी ध्वनि उठी कि ज्ञानसरोवर का जल आन्दोलित हो गया और
तुरंत घोड़े से खींच कर उसकी छाती पर पंजे रख दिये । मैं घड़ा छोड़ कर दौड़ी । युवक
का प्राणांत होनेवाला ही था कि मैंने शेरसिंह के गले में हाथ डाल दिये और उनका सिर
सहला कर क्रोध शांत किया । मैंने उनका ऐसा भयंकर रूप कभी नहीं देखा था । मुझे
स्वयं उनके पास जाते हुए डर लगता था, पर मेरे मृदु वचनों ने अंत में उन्हें वशीभूत
कर लिया, वह अलग खड़े हो गये ।
युवक की छाती में गहरा घाव लगा था । उसे मैंने इसी गुफा में लाकर रखा और उसकी
मरहम-पट्टी करने लगी । एक दिन मैं कुछ आवश्यक वस्तुएँ लेने के लिए उस कस्बे में गयी
जिसके मंदिर के कलश यहाँ से दिखायी दे रहे हैं, मगर वहाँ सब दूकानें बंद थी ।
बाजारों में खाक उड़ रही थी । चारों ओर सियापा छाया हुआ था । मैं बहुत देर तक इधर-
उधर घूमती रही, किसी मनुष्य की सूरत भी न दिखायी देती थी कि उससे वहाँ का सब
समाचार पूछूँ । ऐसा विदित होता था, मानो यह अदृश्य जीवों की बस्ती है । सोच ही रही
थी कि वापस चलूँ कि घोड़ों के टापों की ध्वनि कानों में आयी और एक क्षण में एक
स्त्री सिर से पैर तक काले वस्त्र धारण किये, एक काले घोड़े पर सवार आती हुई दिखायी
दी ।
उसके पीछै कई सवार और प्यादे काली वर्दियाँ पहने आ रहे थे । अकस्मात् उस सवार
स्त्री की दृष्टि मुझ पर पड़ी । उसने घोड़े को एड़ लगायी और मेरे निकट आकर कर्कश
स्वर में बोली, “तू कौन है ?” मैंने निर्भीक भाव से उत्तर दिया, “मैं ज्ञानसरोवर के
तट पर रहती हूँ । यहाँ बाजार में कुछ सामग्रियाँ लेने आयी थी ; किंतु शहर में किसी
का पता नहीं ।” उस स्त्री ने पीछे की ओर देखकर कुछ संकेत किया और दो सवारों ने
आगे बढ़ कर मुझे पकड़ लिया और मेरी बाँहों में रस्सियाँ डाल दीं । मेरे समझ में न
आता था कि किस अपराध का दंड दिया जा रहा है । बहुत पूछने पर भी किसी ने मेरे
प्रश्नों का उत्तर न दिया । हाँ, अनुमान से यह प्रकट हुआ कि यह स्त्री यहाँ की रानी
है । मुझे अपने विषय में तो कोई चिंता न थी पर चिंता थी शेरसिंह की, यह अकेले घबरा
रहे होंगे ।भोजन का समय आ पहुँचा, कौन खिलावेगा । किस विपत्ति में फँसी । नहीं
मालूम विधाता अब मेरी क्या दुर्गति करेंगे । मुझ अभागिन को इस दशा में भी शांति
नहीं ।
इन्हीं मलिन विचारों में मग्न मैं सवारों के साथ आध घंटे तक चलती रही कि सामने एक
ऊँची पहाड़ी पर एक विशाल भवन दिखायी दिया । ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर काट कर चौड़े
जीने बनाये गये थे । हम लोग ऊपर चढ़े । वहाँ सैकड़ों ही आदमी दिखायी दिये, किंतु सब
-के-सब काले वस्त्र धारण किये हुए थे । मैं जिस कमरे में ला कर रखी गयी, वहाँ एक
कुशासन के अतिरिक्त सजावट का और सामान न था । मैं जमीन पर बैठ कर अपने नसीब
को रोने लगी । जो कोई यहाँ आता था, मुझ पर करुण दृष्टिपात करके चुपचाप चला जाता
था । थोड़ी देर में रानी साहब आ कर उसी कुशासन पर बैठ गयीं यद्यपि उनकी अवस्था पचास
वर्ष से अधिक थी; परन्तु मुख पर अद्भुत कांति थी । मैंने अपने स्थान से उठकर उनका
सम्मान किया और हाथ बाँध कर अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए खड़ी हो गयी ।
ऐ मुसाफिर, रानी महोदया के तेवर देखकर पहले तो मेरे प्राण सूख गये; किंतु जिस
प्रकार चंदन जैसी कठोर वस्तु में मनोहर सुगंधि छिपी होती है,उसी प्रकार उनकी
कर्कशता और कठोरता के नीचे मोम के सदृश हृदय छिपा हुआ था ।
उनका प्यारा पुत्र थोड़े ही दिन पहले युवावस्था ही में दगा दे गया था । उसी के शोक
में सारा शहर मातम मना रहा था । मेरे पकड़े जाने का कारण यह था कि मैंने काले
वस्त्र क्यों न धारण किये थे । यह वृत्तांत सुनकर मैं समझ गयी कि जिस राजकुमार का
शोक मनाया जा रहा है वह वही युवक है जो मेरी गुफा में पड़ा हुआ है । मैंने उनसे
पूछा, “राजकुमार मुश्की घोड़े पर तो सवार नहीं थे ?’
रानी – हाँ, हाँ मुश्की घोड़ा था । उसे मैंने उनके लिए अरब देश से मँगवा दिया था ।
क्या तूने उन्हें देखा है ।
मैंने – हाँ, देखा है ।
रानी ने पूछा – कब ?
मैं – जिस दिन वह शेर का शिकार खेलने गये थे ।
रानी – क्या तेरे सामने ही शेर ने उन पर चोट की थी ?
मैं – हाँ, मेरी आँखों के सामने ।
रानी उत्सुक होकर खड़ी हो गयी और बडे दीन भाव से बोली–तू उनकी लाश का पता लगा
सकती है ?
मैं – ऐसा न कहिए, वह अमर हों, वह दो सप्ताहों से मेरे यहाँ मेहमान हैं ।
रानी हर्षमय आश्चर्य से बोली – मेरा रणधीर जीवित है ?
मै – हाँ, अब उनमें चलने फिरने की शक्ति आ गयी है ।
रानी मेरे पैरों पर गिर पड़ी ।
तीसरे दिन अर्जुन नगर की कुछ और ही शोभा थी । वायु आनंद के मधुर स्वर में गूँजती
थी, दूकानों ने फूलों का हार पहना था, बाजारों में आनंद के उत्सव मनाये जा रहे थे ।
शोक के काले वस्त्रों की जगह केसर का सुहावना रंग बधाई दे रहा था । इधर सूर्य ने
उषा-सागर से सिर निकाला । उधर सलामियाँ दगना आरम्भ हुईं । आगे आगे मैं एक
सब्जा घोड़े पर सवार आ रही थी और पीछे राजकुमार का हाथी सुनहरे झूलों से सजा चला
आता था । स्त्रियाँ अटारियों पर मंगल के गीत गाती थीं और पुष्पों की वृष्टि करती
थीं । राजभवन के द्वार पर रानी मोतियों से आँचल-भरे खड़ी थीं, ज्यों ही राजकुमार
हाथी से उतरे; वह उन्हें गोद में लेने के लिए दौड़ी और छाती से लगा लिया ।

(7)

ऐ मुसाफिर, आनंदोत्सव समाप्त होने पर जब मैं विदा होने लगी, तो रानी महोदया ने सजल
नयन हो कर कहा –
“बेटी, तूने मेरे साथ जो उपकार किया है उसका फल तुझे भगवान देंगे । तूने मेरे
राजवंश का उद्धार कर दिया, नहीं तो कोई पितरों को जल देनेवाला भी न रहता । मैं
तुझे कुछ बिदाई देना चाहती हूँ, वह तुझे स्वीकार करनी पड़ेगी । अगर रणधीर मेरा
पुत्र है, तो तू मेरी पुत्री है । तूने ही रणधीर को प्राणदान दिया है, तूने ही इस
राज्य का पुनरुद्धार किया है । इसलिए इस माया-बंधन से तेरा गला नहीं छूटेगा । मैं
अर्जुन नगर का प्रांत उपहार-स्वरूप तेरी भेंट करती हूँ ।”
रानी की यह असीम उदारता देखकर मैं दंग रह गयी । कलियुग में भी कोई ऐसा दानी हो सकता
है, इसकी मुझे आशा न थी । यद्यपि मुझे धन-भोग की लालसा न थी, पर केवल इस विचार
से कि कदाचित यह सम्पत्ति मुझे अपने भाइयों की सेवा करने की सामर्थ्य दे, मैंने एक
जागीरदार की जिम्मेदारियाँ अपने सिर लीं । तब से दो वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, पर
भोग-विलास ने मेरे मन को एक क्षण के लिए भी चंचल नहीं किया । मैं कभी पलंग पर नहीं
सोयी । रूखी-सूखी वस्तुओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाया । पति-वियोग की दशा में
स्त्री तपस्विनी हो जाती है, उसकी वासनाओं का अंत हो जाता है, मेरे पास कई विशाल
भवन हैं, कई रमणीक वाटिकाएँ हैं, विषय-वासना की ऐसी कोई सामग्री नहीं है जो प्रचुर
मात्रा में उपस्थित न हो, पर मेरे लिए वह सब त्याज्य हैं । भवन सूने पड़े हैं और
वाटिकाओं में खोजने से भी हरियाली न मिलेगी । मैंने उनकी ओर कभी आँख उठा कर भी नहीं
देखा । अपने प्राणाधार के चरणों से लगे हुए मुझे अन्य किसी वस्तु की इच्छा नहीं
है । मैं नित्य प्रति अर्जुन नगर जाती हूँ और रियासत के आवश्यक काम-काज करके लौट
आती हूँ । नौकर-चाकर को कड़ी आज्ञा दे दी गयी है कि मेरी शांति में बाधक न हों ।
रियासत की सम्पूर्ण आय परोपकार में व्यय होती है । मैं उसकी कौड़ौ भी अपने खर्च में
नहीं लाती । आपको अवकाश हो तो आप मेरी रियासत का प्रबंध देखकर बहुत प्रसन्न होंगे ।
मैंने इन दो वर्षों में बीस बड़े-बड़े तालाब बनवा दिये हैं और चालीस गौशालाएँ बनवा
दी हैं । मेरा विचार है कि अपनी रियासत में नहरों का ऐसा जाल बिछा दूँ जैसे शरीर
में नाड़ियों का । मैंने एक सौ कुशल वैद्य नियुक्त कर दिये हैं जो ग्रामों में विच-
रण करें और रोग की निवृत्ति करें । मेरा कोई ऐसा ग्राम नहीं है जहाँ मेरी ओर से
सफाई का प्रबन्ध न हो । छोटे छोटे गाँवों में भी आपको लालटेनें जलती हुई मिलेंगी ।
दिन का प्रकाश ईश्वर देता है, रात के प्रकाश की व्यवस्था करना राजा का कर्तव्य है ।
मैंने सारा प्रबंध श्रीधर के हाथों में दे दिया है । सबसे प्रथम कार्य जो मैंने
किया । वह यह था कि उन्हें ढूँढ़ निकालूँ और यह भार उनके सिर रख दूँ । इस विचार
से नहीं कि उनका सम्मान करना मेरा अभीष्ट था, बल्कि मेरी दृष्टि में कोई अन्य पुरुष
ऐसा निस्पृह, ऐसा सच्चरित्र न था ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह यावज्जीवन रियासत की बागडोर अपने हाथ में रखेंगे ।
विद्याधरी भी उनके साथ है । वही शांति और संतोष की मूर्ति, वही धर्म और व्रत की
देवी । उसका पातिव्रत अब भी ज्ञानसरोवर की भाँति अपार और अथाह है । यद्यपि उसका
सौंदर्य-सूर्य अब मध्याह्न पर नहीं है, पर अब भी वह रनिवास की रानी जान पड़ती है ।
चिंताओं ने उसके मुख पर शिकन डाल दिये हैं । हम दोनों कभी-कभी मिल जाती हैं । किंतु
बातचीत की नौबत नहीं आती । उसकी आँखें झुक जाती हैं । मुझे देखते ही उसके ऊपर घड़ों
पानी पड़ जाता है और उसके माथे के जलबिंदु दिखाई देने लगते हैं । मैं आपसे सत्य
कहती हूँ कि मुझे विद्याधरी से कोई शिकायत नहीं है । उसके प्रति मेरे मन में दिनों
दिन श्रद्धा और भक्ति बढ़ती जाती है । मैं उसे देखती हूँ, तो मुझे प्रबल उत्कंठा
होती है कि उसके पैरों पर पड़ूँ । पतिव्रता स्त्री के दर्शन बड़े सौभाग्य से मिलता
है । पर केवल इस भय से कि कदाचित वह इसे मेरी खुशामद समझे, रुक जाती हूँ ।
अब मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अपने स्वामी के चरणों में पड़ी रहूँ और जब इस
संसार से प्रस्थान करने का समय आये तो मेरा मस्तक उनके चरणों पर हो । और अंतिम
जो शब्द मेरे मुँह से निकलें वह यही कि, “ईश्वर , दूसरे जन्म में भी इनकी चेरी
बनाना ।”
पाठक, उस सुन्दरी का जीवन-वृत्तांत सुनकर मुझे जितना कुतूहल हुआ वह अकथनीय है
खेद है कि जिस जाति में ऐसी प्रतिभाशालिनी देवियाँ उत्पन्न हों उस पर पाश्चात्य के
कल्पनाहीन, पुरुष उँगलियाँ उठायें ? समस्त यूरोप में एक ऐसी सुंदरी न होगी जिससे
इसकी तुलना की जा सके । हमने स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को सांसारिक सम्बन्ध समझ
रखा है । उसका आध्यात्मिक रूप हमारे विचार से कोसों दूर है । यही कारण है कि हमारे
देश में शताब्दियों की उन्नति के पश्चात् भी पातिव्रत का ऐसा उज्ज्वल और अलौकिक
उदाहरण नहीं मिल सकता । और दुर्भाग्य से हमारी सभ्यता ने ऐसा मार्ग ग्रहण किया है
कि कदाचित् दूर भविष्य में ऐसी देवियों के जन्म लेने की सम्भावना नहीं है । जर्मनी
को यदि अपनी सेना पर, फ्रांस को अपनी विलासिता पर और इंगलेंड को अपने वाणिज्य
पर गर्व है तो भारतवर्ष को अपने पातिव्रत का घमंड है । क्या यूरोप निवासियों के लिए
यह लज्जा की बात नहीं है कि होमर और बर्जिल, डैंटे और गेटे, शेक्सपियर और ह्यूगो
जैसे उच्चकोटि के कवि एक भी सीता या सावित्री की रचना न कर सके । वास्तव में
यूरोपीय समाज ऐसे आदर्शौ से वंचित है !
मैंने दूसरे दिन ज्ञानसरोवर से बड़ी अनिच्छा के साथ विदा माँगी और यूरोप को चला ।
मेरे लौटने का समाचार पूर्व ही प्रकाशित हो चुका था । जब मेरा जहाज हैम्पबर्ग के
बंदर में पहुँचा तो सहस्त्रों नर-नारी, सैकड़ों विद्वान् और राज कर्मचारी मेरा अभि
वादन करने के लिए खड़े थे । मुझे देखते ही तालियाँ बजने लगीं, रूमाल और टोप हवा
में उछलने लगे और वहाँ से मेरे घर तक जिस समारोह से जुलूस निकला उस पर किसी
राष्ट्रपति को भी गर्व हो सकता है । संध्या समय मुझे कैसर की मेज पर भोजन
करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । कई दिनों तक अभिनंदन-पत्रों का ताँता लगा रहा और
महीनों क्लब और यूनिवर्सिटी की फर्माइशों से दम मारने का अवकाश न मिला । यात्रा
वृत्तांत देश के प्रायः सभी पत्रों में छपा । अन्य देशों से भी बधाई के तार और पत्र
मिले । फ्रांस और रूस आदि देशों की कितनी ही सभाओं ने मुझे व्याख्यान देने के लिए
निमंत्रित किया । एक एक वक्तृता के लिए मुझे कई कई हजार पौंड दिये जाते थे ।
कई विद्यालयों ने मुझे उपाधियाँ दीं । जार ने अपना आटोग्राफ भेजकर सम्मानित किया,
किंतु इन आदर-सम्मान की आँधियों से मेरे चित्त को शांति न मिलती थी और ज्ञानसरोवर
का सुरम्य तट और वह गहरी गुफा और वह मृदुभाषणी रमणी सदैव आँखों के सामने फिरती
रहती । उसके मधुर शब्द कानों में गूँजा करते । मैं थियेटरों में जाता और स्पेन और
जार्जिया की सुन्दरियों को देखता, किंतु हिमालय की अप्सरा मेरे ध्यान से न उतरती ।
कभी कभी कल्पना में मुझे वह देवी आकाश से उतरती हुई मालूम होती, तब चित्त चंचल हो
जाता और विकल उत्कंठा होती कि किसी तरह पर लगा कर ज्ञानसरोवर के तट पहुँच जाऊँ ।
आखिर एक रोज मैंने सफर का सामान दुरुस्त किया और उसी मिती के ठीक एक हजार
दिनों के बाद जब कि मैंने पहली बार ज्ञानसरोवर के तट पर कदम रखा, मैं फिर वहाँ जा
पहुँचा ।
प्रभात का समय था । गिरिराज सुनहरा मुकुट पहने खड़े थे । मंद समीर के आनंदमय
झोंको से ज्ञानसरोवर का निर्मल प्रकाश से प्रतिबिंबित जल इस प्रकार लहरा रहा था,
मानो अगणित अप्सराएँ आभूषणों से जगमगाती हुई नृत्य कर रही हों । लहरों के साथ
शतदल यों झकोरे लेते थे जैसे कोई बालक हिंडोले में झूल रहा हो । फूलों के बीच में
श्वेत हंस तैरते हुए ऐसे मालूम होते थे, मानो लालिमा से छाये हुए आकाश पर तारागण
चमक रहे हों । मैंने उत्सुक नेत्रों से इस गुफा की ओर देखा तो वहाँ एक विशाल
राजप्रसाद आसमान से कंधा मिलाये खड़ा था । एक ओर रमणीक उपवन था, दूसरी ओर
एक गगन चुम्बी मंदिर । मुझे यह कायापलट देख कर आश्चर्य हुआ । मुख्य द्वार पर जा
कर देखा, तो चोबदार ऊदे मखमल की बर्दियाँ पहने, जरी के पट्टे बाँधे खड़े थे । मैंने
पूछा, “क्यों भाई, यह किसका महल है ।”
चोबदार – अर्जुन नगर की महारानी का ।
मैं – क्या अभी हाल ही में बना है ?
चोबदार – हाँ ! तुम कौन हो ?
मैं – एक परदेशी यात्री हूँ । क्या तुम महारानी को मेरी सूचना दे दोगे ?
चोबदार – तुम्हारा क्या नाम है और कहाँ से आते हो ?
मैं – उनसे केवल इतना कह देना कि यूरोप से एक यात्री आया है और आपके दर्शन
करना चाहता है ।
चोबदार भीतर चला गया और एक क्षण के बाद आ कर बोला, `मेरे साथ आओ ।’
मैं उसके साथ हो लिया । पहले एक लम्बी दालान मिली जिसमें भाँति भाँति के पक्षी
पिंजरे में बैठे चहक रहे थे । इसके बाद एक विस्तृत बारहदरी में पहुँचा जो
सम्पूर्णतः पाषाण की बनी हुई थी । मैंने ऐसी सुन्दर गुलकारी ताजमहल के अतिरिक्त और
कहीं नहीं देखी । फर्श की पच्चीकारी को देख कर उस पर पाँव धरते संकोच होता था ।
दीवारों पर निपुण चित्रकारी की रचनाएँ शोभायमान थीं । बारहदरी के दूसरे सिरे पर
एक चबूतरा था जिस पर मोटी कालीनें बिछी हुई थीं । मैं फर्श पर बैठ गया । इतने में
एक लम्बे कद का रूपवान पुरुष अंदर आता हुआ दिखायी दिया । उसके मुख पर प्रतिभा
की ज्योति झलक रही थी और आँखों से गर्व टपका पड़ता था । उसकी काली और भाले की
नोक के सदृश तनी हुई मूँछे, उसके भौंरे की तरह काले घुँघर-वाले बाल उसकी आकृति की
कठोरता को नम्र कर देते थे । विनयपूर्ण वीरता का इससे सुन्दर चित्र नहीं खींच सकता
था । उसने मेरी ओर देखकर मुस्कराते हुए कहा, “आप मुझे पहचानते हैं ?” मैं अदब से
खड़ा हो कर बोला, “मुझे आपसे परिचय का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ ।”
वह कालीन पर बैठ गया और बोला, “मैं शेरसिंह हूँ ।” मैं अवाक्- रह गया । शेरसिंह
ने फिर कहा,”क्या आप प्रसन्न नहीं हैं कि आपने मुझे पिस्तौल का लक्ष्य नहीं बनाया ?
मैं तब पशु था, अब मनुष्य हूँ । ” मैंने कहा, ” आपको हृदय से धन्यवाद देता हूँ ।
यदि आज्ञा हो, तो मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहता हूँ ।”
शेरसिंह ने मुस्करा कर कहा – मैं समझ गया, पूछिए ।
मैं – जब आप समझ ही गये तो मैं पूछूँ क्यों ?
शेरसिंह – सम्भव है, मेरा अनुमान ठीक न हो ।
मैं – मुझे भय है कि उस प्रश्न से आपको दुःख न हो ।
शेरसिंह – कम से कम आपको मुझसे ऐसी शंका न करनी चाहिए ।
मैं – विद्याधरी के भ्रम में कुछ सार था ?
शेरसिंह ने सिर झुका कर कुछ देर में उत्तर दिया – जी हाँ, था ।
जिस वक्त मैंने उसकी कलई पकड़ी थी उस समय आवेश से मेरा एक-एक अंग काँप
रहा था । मैं विद्याधरी के उस अनुग्रह को मरणपर्यंत न भूलूँगा । मगर इतना
प्रायश्चित करने पर भी मुझे अपनी ग्लानि से निवृत्ति नहीं हुई । संसार की कोई वस्तु
स्थिर नहीं, किंतु पाप की कालिमा अमर और अमिट है । यश और कीर्ति कालांतर में
मिट जाती है किंतु पाप का धब्बा नहीं मिटता । मेरा विचार है कि ईश्वर भी दाग को
नहीं मिटा सकता । कोई तपस्या, कोई दंड, कोई प्रायश्चित इस कालिमा को नहीं धो
सकता । पतितोद्धार की कथाएँ और तौबा या कन्फैशन करके पाप से मुक्त हो जाने की
बातें, यह सब संसार-लिप्सी पाखंडी धर्मावलम्बियों की कल्पनाएँ हैं ।
हम दोनों यही बातें कर रहे थे कि रानी प्रियंवदा सामने आकर खड़ी हो गयीं । मुझे आज
अनुभव हुआ, जो बहुत दिनों से पुस्तकों में पढ़ा करता था कि सौंदर्य में प्रकाश होता
है । आज इसकी सत्यता मैंने अपनी आँखों से देखी । मैंने जब उन्हें पहले देखा था तो
निश्चय किया था कि यह ईश्वरीय कला नैपुण्य की पराकाष्ठा है; परन्तु अब जब मैंने
उन्हें दोबारा देखा तो ज्ञात हुआ कि वह इस असल की नकल थी । प्रियंवदा ने मुस्कराकर
कहा – `मुसाफिर, तुझे स्वदेश में भी कभी हम लोगों की याद आयी थी ?’ अगर मैं चित्र
कार होता तो उसके मधु हास्य को चित्रित करके प्राचीन गुणियों को चकित कर देता ।
उसके मुँह से यह प्रश्न सुनने के लिए मैं तैयार न था । यदि इसी भाँति मैं उसका
उत्तर देता तो शायद वह मेरी धृष्टता होती और शेरसिंह के तेवर बदल जाते । मैं यह भी
न कह सका कि मेरे जीवन का सबसे सुखद भाग वही था जो ज्ञानसरोवर के तट पर व्यतीत
हुआ था ; किंतु मुझे इतना साहस भी न हुआ । मैंने दबी जबान से कहा, “क्या मैं मनुष्य
नहीं हूँ ?”

(8)

तीन दिन बीत गये । इन तीनों दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को आतिथ्यसेवी
क्यों कहते हैं । यूरोप का कोई दूसरा मनुष्य जो यहाँ कि सभ्यता से परिचित न हो, इन
सत्कारों से ऊब जाता । किंतु मुझे इन देशों के रहन-सहन का बहुत अनुभव हो चुका है और
मैं उसका आदर करता हूँ ।
चौथे दिन मेरी विनय पर रानी प्रियंवदा ने अपनी शेष कहानी सुनानी शुरू की–
ऐ मुसाफिर, मैंने तुझसे कहा था कि अपनी रियासत का शासन-भार मैंने श्रीधर पर रख
दिया था और जितनी योग्यता और दूरदर्शिता से उन्होंने इस काम को सम्हाला है, उसकी
प्रशंसा नहीं हो सकती । ऐसा बहुत कम हुआ है कि एक विद्वान पंडित जिसका सारा
जीवन पठन-पाठन में व्यतीत हुआ हो, एक रियासत का बोझ सम्हाले; किन्तु राजा वीरबल
की भाँति पं0 श्रीधर भी सब कुछ कर सकते हैं । मैंने परीक्षार्थी उन्हें यह काम
सौंपा था । अनुभव ने सिद्ध कर दिया कि वह इस कार्य के सर्वथा योग्य हैं । ऐसा जान
पड़ता है कि कुल परम्परा ने उन्हें इस काम के लिए अभ्यस्त कर दिया । जिस समय
उन्होंने इसका काम अपने हाथ में लिया, यह रियासत एक ऊजड़ ग्राम के सदृश थी । अब
वह धनधान्यपूर्ण एक नगर है । शासन का कोई ऐसा विभाग नहीं, जिस पर उनकी सूक्ष्म
दृष्टि न पहुँची हो ।
थोड़े ही दिनों में लोग उनके शील-स्वभाव पर मुग्ध हो गये और राजा रणधीरसिंह भी उन
पर कृपा-दृष्टि रखने लगे । पंडित जी पहले शहर से बाहर एक ठाकुर-द्वारे में रहते थे
किंतु जब राजा साहब से मेल-जोल बढ़ा तो उनके आग्रह से विवश हो कर राजमहल में चले
आये । यहाँ तक परस्पर मैत्री और घनिष्ठता बढ़ी कि मान-प्रतिष्ठा का विचार भी जाता
रहा । राजा साहब पंडित जी से संस्कृत भी पढ़ते थे और उनके समय का अधिकांश भाग
पंडित जी के मकान पर ही कटता था; किन्तु शोक ! यह विद्याप्रेम या शुद्ध मित्रभाव का
आकर्षण न था । यह सौंदर्य का आकर्षण था । यदि उस समय मुझे लेशमात्र भी संदेह होता
कि रणधीरसिंह की यह घनिष्ठता कुछ और ही पहलू लिये हुए है तो उसका अंत इतना खेद
जनक न होता जितना कि हुआ । उनकी दृष्टि विद्याधरी पर उस समय पड़ी जब वह ठाकुरद्वारे
में रहती थीं और यह सारी की योजनाएँ उसी की करामात थीं । राजा साहब स्वभावतः बड़े
ही सच्चरित्र और संयमी पुरुष हैं; किंतु जिस रूप ने मेरे पति जैसे देवपुरुष का ईमान
डिगा दिया, वह सब कुछ कर सकता है ।
भोली-भाली विद्याधरी मनोविकारों की इस कुटिल नीति से बेखबर थी । जिस प्रकार छलाँगे
मारता हुआ हिरन व्याध की फैलायी हुई हरी-हरी घास से प्रसन्न होकर उस ओर बढ़ता है
और यह नहीं समझता कि प्रत्येक पग मुझे सर्वनाश की ओर लिये जाता है,
उसी भाँति विद्याधरी को उसका चंचल मन अंधकार की ओर खींचे लिये जाता था । वह राजा
साहब के लिए अपने हाथों से बीड़े लगा कर भेजती, पूजा के लिए चंदन रगड़ती । रानी जी
से भी उसका बहनापा हो गया । वह एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से न जाने देतीं ।
दोनों साथ-साथ बाग कि सैर करतीं, साथ-साथ झूला झूलतीं, साथ-साथ चौपड़ खेलतीं । यह
उनका श्रृंगार करती और वह उनकी माँग-चोटी सँवारती मानो विद्याधरी ने रानी के हृदय
में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जो किसी समय मुझे प्राप्त था । लेकिन वह गरीब थी कि
जब मैं बाग की रविशों में बिचरती हूँ, तो कुवासना मेरे तलवे के नीचे आँखें बिछाती
है, जब मैं झूला झूलती हूँ, तो वह आड़ में बैठी हुई आनंद से झूमती है । इस सरल हृदय
अबला स्त्री के लिए चारों ओर से चक्रव्यूह रचा जा रहा था ।
इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया, राजा साहब का रब्त-जब्त दिनों दिन बड़ता जाता
था । पंडित जी को उनसे यह स्नेह हो गया जो गुरू जी को अपने एक होनहार शिष्य से
होता है । मैंने जब देखा कि आठों पहर का यह सहवास पंडित जी के काम में विघ्न डालता
है, तो एक दिन मैंने उनसे कहा – यदि आपको कोई आपत्ति न हो, तो दूरस्थ देहातों का
दौरा आरम्भ करदें और इस बात का अनुसंधान करें कि देहातों में कृषकों के लिए बैंक
खोलने में हमें प्रजा से कितनी सहानुभूति और कितनी सहायता की आशा करनी चाहिए ।
पंडित जी के मन की बात नहीं जानती; पर प्रत्यक्ष में उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की ।
दूसरे ही दिन प्रातःकाल चले गये । किंतु आश्चर्य है कि विद्याधरी उनके साथ न गयी ।
अब तक पंडित जी जहाँ कहीं जाते ; विद्याधरी परछाईं की भाँति उनके साथ रहती थी ।
असुविधा या कष्ट का विचार भी उसके मन में न आता था । पंडित जी कितना ही समझायें,
कितना ही डरायें, पर वह उनका साथ न छोड़ती थी; पर अबकी बार कष्ट के विचार ने इसे
कर्तव्य के मार्ग से विमुख कर दिया । पहले उसका पातिव्रत एक वृक्ष था,जो उसके प्रेम
की क्यारी में अकेला खड़ा था ; किंतु अब उसी क्यारी में मैत्री का घास-पात निकल आया
था, जिसका पोषण भी उसी भोजन पर अवलम्बित था ।

(9)

ऐ मुसाफिर, छह महीने गुजर गये और पंडित श्रीधर वापस न आये । पहाड़ों की चोटियों पर
छाया हुआ हिम घुल-घुल कर नदियों में बहने लगा, उनकी गोद में फिर रंग-बिरंग के फूल
लहलहाने लगे । चंद्रमा की किरणें फिर फूलों की महक सूँघने लगी । सभी पर्वतों के
पक्षी अपनी वार्षिक यात्रा समाप्त कर फिर स्वदेश आ पहुँचे; किंतु पंडित जी रियासत
के कामों में ऐसे उलझे कि मेरे निरंतर आग्रह करने पर भी अर्जुननगर न आये । विद्या
धरी की ओर से वह इतने उदासीन क्यों हुए, समझ में नहीं आता था । उन्हें तो उसका
वियोग एक क्षण के लिए भी असह्य था । किंतु इससे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि
विद्याधरी ने भी आग्रहपूर्ण पत्रों के लिखने के अतिरिक्त उनके पास जाने का कष्ट न
उठाया । वह अपने पत्रों में लिखती – `स्वामी जी, मैं बहुत व्याकुल हूँ, यहाँ मेरा
जी जरा भी नहीं लगता । एक एक दिन एक एक वर्ष के समान व्यतीत होता है । न
दिन को चैन, न रात को नींद । क्या आप मुझे भूल गये ? मुझसे कौन सा अपराध हुआ ?
क्या आपको मुझ पर दया भी नहीं आती ? मैं आपके वियोग में रो रो कर मरी जाती हूँ ।
नित्य स्वप्न देखती हूँ कि आप आ रहे हैं; पर यह स्वप्न सच्चा नहीं होता ।’ उसके
पत्र ऐसे ही प्रेममय शब्दों से भरे होते थे और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि जो कुछ
वह लिखती थी, वह भी अक्षरशः सत्य था ; मगर इतनी व्याकुलता, इतनी चिंता और
इतनी उद्विग्नता पर भी उसके मन में कभी यह प्रश्न न उठा कि क्यों न मैं ही उनके पास
चली चलूँ ।
बहुत ही सुहावनी ऋतु थी । ज्ञानसरोवर में यौवन-काल की अभिलाषाओं की भाँति कमल के
फूल खिले हुए थे । राजा रणजीतसिंह की पचीसवीं जयंती का शुभ-मुहूर्त आया । सारे नगर
में आनंदोत्सव की तैयारियाँ होने लगीं । गृहणियाँ कोरे-कोरे दीपक पानी में भिगोने
लगीं कि वह अधिक तेल न सोख जायँ । चैत्र की पूर्णिमा थी, किंतु दीपक की जगमगाहट
ने ज्योत्सना को मात कर दिया था । मैंने राजा साहब के लिए इस्फहान से एक रत्नजटित
तलवार मँगा रखी थी । दरबार के अन्य जागीरदारों और अधिकारियों ने भी भाँति भाँति के
उपहार मँगा रखे थे । मैंने विद्याधरी के घर जा कर देखा,
तो वह एक पुष्पहार गूँथ रही थी । मैं आध घंटे तक उसके सम्मुख खड़ी रही; किंतु वह
अपने काम में इतनी व्यस्त थी कि उसे मेरी आहट भी न मिली । तब मैंने धीरे से पुकारा,
“बहन !” विद्याधरी ने चौंक कर सिर उठाया और बड़ी शीघ्रता से वह हार फूल की डाली में
छिपा दिया और लज्जित हो कर बोली–क्या तुम देर से खड़ी हो ? मैंने उत्तर दिया–
आध घंटे से अधिक हुआ ।
विद्याधरी के चेहरे का रंग उड़ गया, आँखे झुक गयीं, कुछ हिचकिचायी, कुछ घबरायी,
अपने अपराधी हृदय को इन शब्दों से शांत किया–`यह हार मैंने ठाकुर जी के लिए गूँथा
है ‘ उस समय विद्याधरी की घबराहट का भेद मैं कुछ न समझी । ठाकुर जी के लिए हार
गूँथना क्या कोई लज्जा की बात है ? फिर जब वह हार मेरी नजरों से छिपा दिया गया तो
उसका जिक्र ही क्या ? हम दोनों ने कितनी ही बार साथ बैठ कर हार गूँथे थे । कोई
निपुण मालिन भी हमसे अच्छे हार न गूँथ सकती थी; मगर इसमें शर्म क्या ?दूसरे दिन यह
रहस्य मेरी समझ में आ गया । वह हार राजा रणवीरसिंह को उपहार में देने के लिए बनाया
गया था ।
यह बहुत सुंदर वस्तु थी । विद्याधरी ने अपना सारा चातुर्य उसके बनाने में खर्च किया
था । कदाचित यह सबसे उत्तम वस्तु थी जो राजा साहब को भेंट कर सकती थी । वह
ब्राह्मणी थी । राजा साहबकी गुरुमाता थी । उसके हाथों से वह उपहार बहुत ही शोभा
देता था; किंतु यह बात उसने मुझसे छिपायी क्यों ?
मुझे उस दिन रात भर नींद न आयी । उसके रहस्य-भाव ने उसे मेरी नजरों से गिरा दिया ।
एक आँख झपकीं तो मैंने उसे स्वप्न में देखा, मानों वह एक सुंदर पुष्प है; किंतु
उसकी बास मिट गयी हो । वह मुझसे गले मिलने के लिए बढ़ी; किंतु मैं हट गयी और बोली
कि तूने मुझसे वह बात छिपायी क्यों

(10)

ऐ मुसाफिर राजा रणधीरसिंह की उदारता ने प्रजा को मालामाल कर दिया । रईसों और अमीरों
न खिलअतें पायीं । किसी को घोड़ा मिला, किसी को जागीर मिली । मुझे उन्होंने श्री
भगवद्गीता की एक प्रति एक मखमली बस्ते में रख कर दी । विद्याधरी को एक बहूमूल्य
जड़ाऊ कंगन मिला ।
देहली के निपुण स्वर्णकारों ने इसके बनाने में अपनी कला का चमत्कार दिखाया था ।
विद्याधरी को अब तक आभूषणों से इतना प्रेम न था, अब तक सादगी ही उसका आभूषण
और पवित्रता ही उसका श्रृंगार थी ,
पर इस कंगन पर वह लोट-पोट हो गयी । आषाढ़ का महीना आया । घटाएँ गगनमंडल में
मंडलाने लगीं । पंडित श्रीधर को घर की सुध आयी । पत्र लिखा कि मैं आ रहा हूँ ।
विद्याधरी ने मकान खूब साफ कराया और स्वयं अपना बनाव-श्रृंगार किया । उसके वस्त्रों
से चंदन की महक उड़ रही थी । उसने कंगन को संदूकचे से निकाला और सोचने लगी
कि इसे पहनूँ या न पहनूँ । उसके मन ने निश्चय किया कि न पहनूँगी । संदूक बंद करके
रख दिया ।
सहसा लौंडी ने आकर सूचना दी कि पंडित जी आ गये । यह सुनते ही विद्याधरी लपक कर उठी
उठी किंतु पति के दर्शनों की उत्सुकता उसे द्वार की ओर नहीं ले गयी । उसने बड़ी
फुर्ती से संदूकचा खोला, कंगन निकाल कर पहना और अपनी सूरत आइने में देखने लगी ।
इधर पंडित जी प्रेम की उत्कंठा से कदम बढ़ाते दालान से आँगन और आँगन से विद्याधरी
के कमरे में आ पहुँचे । विद्याधरी ने आ कर उनके चरणों को अपने सिर से स्पर्श किया ।
पंडित जी उसका श्रृंगार देख कर दंग रह गये । एकाएक उनकी दृष्टि उस कंगन पर पड़ी ।
राजा रणधीरसिंह की संगत ने उन्हें रत्नों का पारखी बना दिया था । ध्यान से देखा तो
एक-एक नगीना एक एक हजार का था । चकित हो कर बोले,`यह कंगन कहाँ मिला ?’
विद्याधरी ने जवाब पहले ही सोच रखा था । रानी प्रियंवदा ने दिया है । यह जीवन में
पहला अवसर था कि विद्याधरी ने अपने पतिदेव से कपट किया । जब हृदय शुद्ध न हो तो
मुख से सत्य क्यों कर निकले ! यह कंगन नहीं वरन् एक विषैला नाग था ।

(11)

एक सप्ताह गुजर गया । विद्याधरी के चित्त की शांति और प्रसन्नता लुप्त हो गयी थी ।
यह शब्द कि रानी प्रियंवदा ने दिया है, प्रतिक्षण उसके कानों में गूँजा करते । वह
अपने को धिक्कारती कि मैंने अपने प्राणाधार से क्यों कपट किया ।
बहुधा रोया करती । एक दिन उसने सोचा कि क्यों न चल कर पति से सारा वृत्तांत सुना
दूँ । क्या वह मुझे क्षमा न करेंगे ? यह सोच कर उठी; किंतु पति के सम्मुख जाते ही
उसकी जबान बंद हो गयी । वह अपने कमरे में आयी और फूट फूट कर रोने लगी । कंगन
पहन कर उसे बहुत आनंद हुआ था । इसी कंगन ने उसे हँसाया था, अब वही रुला रहा है ।
विद्याधरी ने रानी के साथ बागों में सैर करना छोड़ दिया, चौपड़ और शतरंज उसके नाम
को रोया करते । वह सारे दिन अपने कमरे में पड़ी रोया करती और सोचती कि क्या करूँ।
काले वस्त्र पर काला दाग छिप जाता है, किंतु उज्ज्वल वस्त्र पर कालिमा की एक बूँद
भी झलकने लगती है । वह सोचती, इसी कंगन ने मेरा सुख हर लिया है, यही कंगन मुझे
रक्त के आँसू रुला रहा है । सर्प जितना सुंदर होता है उतना ही विषाक्त भी होता है ।
यह सुंदर कंगन विषधर नाग है, मैं उसका सिर कुचल डालूँगी । यह निश्चय करके उसने
एक दिन अपने कमरे में कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ के किवाड़ बंद कर दिये और
उस कंगन को , जिसने उसके जीवन को संकटमय बना रखा था, संदूकचे से निकाल कर
आग में डाल दिया । एक दिन वह था कि कंगन उसे प्राणों से भी प्यारा था, उसे मखमली
संदूकचे में रखती थी, आज उसे इतनी निर्दयता से आग में जला रही है ।
विद्याधरी अलाव के सामने बैठी हुई थी इतने में पंडित श्रीधर ने द्वार खटखटाया ।
विद्याधरी को काटो तो लहू नहीं । उसने उठ कर द्वार खोल दिया और सिर झुका कर खड़ी
हो गयी ।पंडित जी ने बड़े आश्चर्य से कमरे में निगाह दौड़ायी, पर रहस्य कुछ समझ में
न आया । बोले कि किवाड़ बंद करके क्या हो रहा है ? विद्याधरी ने उत्तर न दिया । तब
पंडित जी ने छड़ी उठा ली और अलाव कुरेदा तो कंगन निकल आया । उसका संपूर्णतः
रूपांतर हो गया था । न वह चमक थी, न वह रंग, न वह आकार । घबरा कर बोले,
विद्याधरी, तुम्हारी बुद्धि कहाँ है ?’
विद्या – भ्रष्ट हो गयी है ।
पंडित – इस कंगन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ?
विद्या – इसने मेरे हृदय में आग लगा रखी है ।
पंडित – ऐसी अमूल्य वस्तु मिट्टी में मिल गयी !
विद्या – इसने उससे भी अमूल्य वस्तु का अपहरण किया है ।
पंडित – तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया है ?
विद्या – शायद आपका अनुमान सत्य है ।
पंडित जी ने विद्याधरी की ओर चुभनेवाली निगाहों से देखा । विद्याधरी की आँखें नीचे
को झुक गयीं । वह उनसे आँखें न मिला सकी । भय हुआ कि कहीं यह तीव्र दृष्टि
मेरे हृदय में न चुभ जाय । पंडित जी कठोर स्वर में बोले – विद्याधरी, तुम्हें
स्पष्ट कहना होगा । विद्याधरी से अब न रुका गया , वह रोने लगी और पंडित जी के
सम्मुख धरती पर गिर पड़ी ।

(12)

विद्याधरी को जब सुध आयी तो पंडित जी का वहाँ पता न था । घबरायी हुई बाहर के दीवान
खाने में आयी, मगर यहाँ भी उन्हें न पाया । नौकरों से पूछा तो मालूम हुआ कि घोड़े
पर सवार होकर ज्ञानसरोवर की ओर गये हैं । यह सुनकर विद्याधरी को कुछ ढाढ़स हुआ ।
वह द्वार पर होकर उनकी राह देखती रही । दोपहर हुआ, सूर्य सिर पर आया, संध्या हुई,
चिड़िया बसेरा ;लेने लगीं, फिर रात आयी, गगन में तारागण जगमगाने लगे; किंतु विद्या
धरी दीवार की भाँति खड़ी पति का इंतजार करती रही । रात भीग गयी, वनजंतुओं के भयानक
शब्द कानों में आने लगे, सन्नाटा छा गया । सहसा उसे घोड़े के टापों की ध्वनि सुनायी
दी । उसका हृदय फड़कने लगा । आनंदोन्मत्त हो कर द्वार के बाहर निकल आयी; किंतु
घोड़े पर सवार न था । विद्याधरी को अब विश्वास हो गया कि अब पतिदेव के दर्शन न
होंगे । या तों उन्होंने सन्यास ले लिया या आत्मघात कर लिया । उसके कंठ से नैराश्य
और विषाद से डूबी हुई ठंडी साँस निकली । वहीं भूमि पर बैठ गयी और सारी रात खून के
आँसू बहाती रही । जब उषा की निद्रा भंग हुई और पक्षी आनंदगान करने लगे तब वह दुखिया
उठी और अंदर जाकर लेट रही ।जिस प्रकार सूर्य का ताव जल को सोख लेता है , उसी भाँति
शोक के ताव ने विद्याधरी का रक्त जला दिया । मुख से ठंडी साँस निकलती थी, आँखों से
गर्म आँसू बहते थे । भोजन से अरुचि हो गयी ओर जीवन से घृणा । इसी अवस्था में एक दिन
राजा रणधीरसिंह सहवेदना-भाव से उसके पास आये ।
उन्हें देखते ही विद्याधरी की आँखें रक्तवर्ण हो गयीं, क्रोध से ओठ काँपने लगे,
झल्लायी हुई नागिन की भाँति फुफकार कर उठी और राजा के सम्मुख आकर कर्कश स्वर में
बोली, पापी, यह आग तेरी ही लगायी हुई है । यदि मुझमें अब भी कुछ सत्य है,तो मुझे इस
दुष्टता के कड़ुवे फल मिलेंगे ।’ ये तीर के-से शब्द राजा के हृदय में चुभ गये ।
मुँह से एक शब्द भी न निकला । काल से न डरने वाला राजपूत एक स्त्री की आग्नेय
दृष्टि से काँप उठा ।
स्वभाव ने जो कुछ रंग बदला वह रानी जी ही की कुसंगति का फल था । उन्हीं की देखा-
देखी उसे बनाव-श्रृंगार की चाट पड़ी, उन्हीं के मना करने से उसने कंगन का भेद पंडित
जी से छिपाया । ऐसी घटनाएँ स्त्रियों के जीवन में नित्य होती रहती हैं और उन्हें
जरा भी शंका नहीं होती । विद्याधरी का पातिव्रत आदर्श था । इसलिए यह विचलता
उसके हृदय में चुभने लगी । मैं यह नहीं कहती कि विद्याधरी कर्तव्यपथ से विचलित
नहीं हुई, चाहे किसी के बहकाने से, चाहे अपने भोलेपन से, उसने कर्तव्य का सीधा
रास्ता छोड़ दिया, परंतु पाप-कल्पना उसके दिल से कोसों दूर थी ।

(14)

ऐ मुसाफिर, मैंने पंडित श्रीधर का पता लगाना शुरू किया । मैं उनकी मनोवृति से
परिचित थी । वह श्रीरामचंद्र के भक्त थे । कौशलपुरी की पवित्र भूमि और सरयू नदी के
रमणीक तट उनके जीवन के सुखस्वप्न थे । मुझे खयाल आया कि सम्भव है, उन्होंने अयोध्या
की राह ली हो । कहीं मेरे प्रयत्न से उनकी खोज मिल जाती और मैं उन्हें लाकर विद्या-
धरी के गले से मिला देती, तो मेरा जीवन सफल हो जाता । इस विरहिणी ने बहुत दुःख झेले
हैं । क्या अब भी देवताओं को उस पर दया न आयेगी ? एक दिन मैंने शेरसिंह से कहा और
पाँच विश्वस्त मनुष्यों के साथ अयोध्या को चली । पहाड़ों से नीचे उतरते ही रेल मिल
गयी उसने हमारी यात्रा सुलभ कर दी । बीसवें दिन मैं अयोध्या पहुँच गयी और धर्मशाले
में ठहरी । फिर सरयू में स्नान करके श्रीरामचंद्र के दर्शन को चली । मंदिर के आँगन
में पहुँची ही थी कि पंडित श्रीधर की सौम्य मूर्ति दिखायी दी । वह एक कुशासन पर
बैठे हुए रामायण का पाठ कर रहे थे और सहस्त्र नर-नारी बैठे हुए उनकी अमृतवाणी का
आनन्द उठा रहे थे ।
पंडित जी की दृष्टि मुझ पर ज्यों ही पड़ी, वह आसन से उठकर मेरे पास आये और बड़े
प्रेम से मेरा स्वागत किया । दो-ढ़ाई घंटे तक उन्होंने मुझे उस मंदिर की सैर करायी
मंदिर के छत पर से सारा नगर शतरंज के बिसात की भाँति मेरे पैरों के नीचे फैला हुआ
दिखायी देता था । मंदगामिनी वायु सरयू की तरंगों को धीरे धीरे थपकियाँ दे रही थी ।
ऐसा जान पड़ता था मानो स्नेहमयी माता ने इस नगर को अपनी गोद में लिया हो ।
यहाँ से जब अपने डेरे को चली तब पंडितजी भी मेरे साथ आये । जब वह इतमीनान से बैठे
तो मैंने कहा–आपने तो हम लोगों से नाता ही तोड़ लिया । पंडित जी ने दुखित होकर कहा
-विधाता की यही इच्छा थी । मेरा क्या वश था । अब तो श्रीरामचंद्र की शरण आ गया हूँ
और शेष जीवन उन्हीं की सेवा में भेंट होगा ।
मैं–आप तो श्रीरामचंद्र की शरण में आ गये हैं, उस अबला विद्याधरी को किसकी शरण में
छोड़ दिया है ?
पंडित — आपके मुख से ये शब्द शोभा नहीं देते ।
मैने उत्तर दिया – विद्याधरी को मेरी सिफारिश की आवश्यकता नहीं है । अगर आपने उसके
पातिव्रत पर संदेह किया तो आपसे ऐसा भीषण पाप हुआ है, जिसका प्रायश्चित आप बार-बार
जन्म ले कर भी नहीं कर सकते । आपकी यह भक्ति इस अधर्म का निवारण नहीं कर सकती ।
आप क्या जानते हैं कि आपके वियोग में उस दुखिया का जीवन कैसे कट रहा है ।
किंतु पंडित जी ने ऐसा मुँह बना लिया, मानो इस विषय में वह अंतिम शब्द कह चुके ।
किंतु मैं इतनी आसानी से उनका पीछा क्यों छोड़ने लगी । मैंने सारी कथा आद्योपांत
सुनायी । और रणधीरसिंह की कपटनीति का रहस्य खोल दिया तब पंडित जी की आँखे खुलीं
मैं वाणी में कुशल हूँ, किंतु उस समय सत्य और न्याय के पक्ष ने मेरे शब्दों को बहुत
प्रभावशाली बना दिया था । ऐसा जान पड़ता था, मानो मेरी जिह्वा पर सरस्वती विराजमान
हों । अब वह बातें याद आती हैं तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है । आखिर विजय मेरे ही
साथ रही । पंडित जी मेरे साथ चलने पर उद्यत हो गये ।

(15)

यहाँ आकर मैंने शेरसिंह को यहीं छोड़ा और पंडित जी के साथ अर्जुननगर को चली । हम
दोनों अपने विचारों में मग्न थे । पंडित जी की गर्दन शर्म से झुकी हुई थी क्योंकि
अब उनकी हैसियत रूठनेवालों की भाँति नहीं, बल्कि मनानेवालों की तरह थी ।
आज प्रणय के सूखे हुए धान में फिर पानी पड़ेगा, प्रेम की सूखी हुई नदी फिर
उमड़ेगी ।
जब हम विद्याधरी के द्वार पर पहुँचे तो दिन चढ़ आया था । पंडित जी बाहर ही रुक गये
थे । मैंने भीतर जाकर देखा तो विद्याधरी पूजा पर थी । किंतु यह किसी देवता की पूजा
न थी । देवता के स्थान पर पंडित जी को खड़ाऊँ रखी हुई थी । पातिव्रत का यह अलौकिक
दृश्य देखकर मेरा हृदय पुलकित हो गया । मैंने दौड़ कर विद्याधरी के चरणों पर सिर
झुका दिया । उसका शरीर सूख कर काँटा हो गया था और शोक ने कमर झुका दी थी ।
विद्याधरी ने मुझे उठा कर छाती से लगा लिया और बोली–बहन, मुझे लज्जित न करो ।
खूब आयीं, बहुत दिनों से जी तुम्हें देखने को तरस रहा था ।
मैंने उत्तर दिया – जरा अयोध्या चली गयी थी । जब हम दोनों अपने देश में थीं तो जब
मैं कहीं जाती तो विद्याधरी के लिए कोई न कोई उपहार अवश्य लाती । उसे वह बात याद
आ गयी । सजल-नयन होकर बोली – मेरे लिए भी कुछ लायीं ?
मैं – एक बहुत अच्छी वस्तु लायी हूँ ।
विद्या0 – क्या है, मैं देखूँ ?
मैं – पहले बूझो जानो ।
विद्या0 – सुहाग की पिटारी होगी ?
मैं – नहीं, उससे अच्छी ।
विद्या0 – ठाकुर जी की मूर्ति ?
मैं – नहीं, उससे भी अच्छी ।
विद्या0 – मेरे प्राणाधार का कोई समाचार ?
मैं – उससे भी अच्छी ।
विद्या0 – उससे भी अच्छी ।
विद्याधरी प्रबल आवेश से व्याकुल हो कर उठी कि द्वार पर जाकर पति का स्वागत करे,
किंतु निर्बलता ने मन की अभिलाषा न निकलने दी । तीन बार सँभली और तीन बार गिरी
तब मैंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और आँचल से हवा करने लगी । उसका हृदय
बड़े वेग से धड़क रहा था और पति दर्शन का आनन्द आँखों से आँसू बनकर निकलता था ।
जब जरा चित सावधान हुआ तो उसने कहा–उन्हें बुला लो, उनका दर्शन मुझे रामबाण हो
जायगा ।
ऐसा ही हुआ । ज्यों ही पंडित जी अंदर आये, विद्याधरी उठकर उनके पैरों से लिपट गयी ।
देवी ने बहुत दिनों के बाद पति के दर्शन पाये हैं । अश्रु धारा से उनके पैर पखार
रही है ।
मैंने वहाँ ठहरना उचित न समझा । इन दोनों प्राणियों में कितनी ही बातें आ रही होंगी
दोनों क्या-क्या कहना ओर क्या क्या सुनना चाहते होंगे, इस विचार से, मैं उठ खड़ी
हुई और बोली–बहन, अब मैं जाती हूँ, शाम को फिर आऊँगी । विद्याधरी ने मेरी ओर
आँखें उठायीं । पुतलियों के स्थान पर हृदय रखा हुआ था । दोनों आँखें आकाश की ओर
उठाकर बोली–ईश्वर तुम्हें इस यश का फल दें ।

(16)

ऐ मुसाफिर, मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया था, किंतु आज का-सा
आनन्द कभी न प्राप्त हुआ था ।
जब मैं ज्ञानसरोवर पर पहुँची तो दोपहर हो आया था । विद्याधरी की शुभकामना मुझसे ही
पहुँच चुकी थी । मैंने देखा कि कोई पुरुष गुफा से निकल कर ज्ञानसरोवर की ओर चला
जाता है । मुझे आश्चर्य हुआ की इस समय यहाँ कौन आया । लेकिन जब समीप आ गया
तो मेरे हृदय में ऐसी तरंगे उठने लगीं मानों छाती से बाहर निकल पड़ेगा । यह मेरे
प्राणेश्वर, मेरे पतिदेव थे । मैं चरणों पर गिरना ही चाहती थी कि उनका कर-पास मेरे
गले में पड़ गया ।
पूरे दस वर्षों के बाद मुझे यह शुभ दिन देखना नसीब हुआ । मुझे उस समय ऐसा जान पड़ता
था कि ज्ञानसरोवर के कमल मेरे ही लिए खिले हैं, गिरिराज ने मेरे ही लिए फूल की
शय्या दी है, हवा मेरे लिए झूमती हुई आ रही है ।
दश वर्षों के बाद मेरा उजड़ा हुआ घर बसा; गये हुये दिन लौटे । मेरे आनंद का अनुमान
कौन कर सकता है ।
मेरे पति ने प्रेमकरुणा भरी आँखों से देखकर कहा, `प्रियंवदा ?’

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मर्यादा की बेदी

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यह वह समय था जब चित्तौड़ में मृदुभाषिणी मीरा प्यारी आत्माओं को ईश्वर-प्रेम के
प्याले पिलाती थी । रणछोड़ जी के मंदिर में जब भक्ति से विह्वल हो कर वह अपने मधुर
स्वरों में अपने पियूषपूरित पदों को गाती, तो श्रोतागण प्रेमानुराग से उन्मत्त हो
जाते । प्रतिदिन यह स्वर्गीय आनंद उठाने के लिए सारे चित्तौड़ के लोग ऐसे उत्सुक हो
कर दौड़ते, जैसे दिन भर की प्यासी गायें दूर से किसी सरोवर को देखकर उसकी ओर
दौड़ती है । इस प्रेम-सुधा सागर से केवल चित्तौड़वासियों ही की तृप्ति न होती थी,
बल्कि समस्त राजपूताना की मरुभूमि प्लावित हो जाती थी ।
एक बार ऐसा संयोग हुआ की झालावाड़ के रावसाहब और मंदार-राज्य के कुमार, दोनों ही
लाव-लश्कर के साथ चित्तौड़ आये । रावसाहब के साथ राजकुमारी प्रभा भी थी, जिसके रूप
और गुण की दूर दूर तक चर्चा थी । यहीं रणछोड़ जी के मंदिर में दोनों की आँखें मिलीं
प्रेम ने बाण चलाया ।
राजकुमार सारे दिन उदासीन भाव से शहर की गलियों में घूमा करता । राजकुमारी विरह से
व्यथित अपने महल के झरोखों से झाँका करती । दोनों व्याकुल होकर संध्या समय मंदिर
में आते और यहाँ चंद्रे को देखकर कुमुदिनी खिल जाती ।
प्रेम-प्रवीण मीरा ने कई बार इन दोनों प्रेमियों को सतृष्ण नेत्रों से परस्पर देखते
हुए पाकर उनके मन के भावों को ताड़ लिया । एक दिन कीर्त्तन के पश्चात् जब झालावाड़
के रावसाहब चलने लगे तो उसने मंदार के राजकुमार को बुला कर उनके सामने खड़ा कर
दिया और कहा–रावसाहब, मैं प्रभा के लिए यह वर लायी हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिए ।
प्रभा लज्जा से गड़-सी गयी । राजकुमार के गुण-शील पर रावसाहब पहले ही से मोहित
हो रहे थे, उन्होंने तुरंत उसे छाती से लगा लिया । उसी अवसर पर चित्तौड़ के राणा
भोजराज भी मंदिर में आये । उन्होंने प्रभा का मुख-चंद्र देखा । उनकी छाती पर साँप
लौटने लगा ।

(2)

झालावाड़ में बड़ी धूम थी । राजकुमारी प्रभा का आज विवाह होगा, मंदार से बारात
आयेगी । मेहमानों की सेवा सम्मान की तैयारियाँ हो रही थीं । दूकानें सजी हुई थीं ।
नौबतखाने आमोदालाप से गूँजते थे । सड़कों पर सुगंधि छिड़की जाती थी ।अट्टालिकाएँ
पुष्पलताओं से शोभायमान थीं । पर जिसके लिए ये सब तैयारियाँ हो रही थीं, वह अपनी
वाटिका के एक वृक्ष के नीचे उदास बैठी हुई रो रही थी ।
रनिवास में डोमिनयाँ आनन्दोत्सव के गीत गा रही थीं कहीं सुन्दरियों के हाव-भाव थे,
कहीं आभूषणों की चमक-दमक, कहीं हास-परिहास की बहार । नाइन बात बात पर तेज
होती थी । मालिन गर्व से फूली न समाती थी । धोबिन आँखे दिखाती थी । कुम्हारिन मटके
के सदृश फूली हुई थी । मंडप के नीचे पुरोहित जी बात-बात पर सुवर्ण-मुद्राओं के लिए
ठनकते थे । रानी सीर के बाल-खोले भूखी-प्यासी चारों ओर दौड़ती थी । सबकी बौछारें
सहती थी और अपने भाग्य को सराहती थी । दिलखोल कर हीरे-जवाहिर लुटा रही थी ।
आज प्रभा का विवाह है । बड़े भाग्य से ऐसी बातें सुनने में आती हैं । सब के सब अपनी
अपनी धुन में मस्त हैं । किसी को प्रभा की फिक्र नहीं है, जो वृक्ष के नीचे अकेली
बैठी रो रही है । एक रमणी ने आकर नाइन से कहा – बहुत बढ़-बढ़ कर बात न कर
कुछ राजकुमारी का भी ध्यान है ? चल, उनके बाल गूँथ ।
नाइन ने दाँतों तले जीभ दबायी । दोनों प्रभा को ढूँढ़ती हुई बाग में पहुँची । प्रभा
ने उन्हें देखते ही आँसू पोंछ डाले । नाइन मोतियों से माँग भरने लगी और प्रभा सिर
नीचा किये आँखों से मोती बरसाने लगी ।
रमणी ने सजल नेत्र हो कर कहा–बहिन, दिल इतना छोटा मत करो । मुँह-माँगी मुराद
पाकर इतनी उदास क्यों होती हो ?
प्रभा ने सहेली की ओर देखकर कहा–बहिन, जाने क्यों दिल बैठा जाता है । सहेली ने
छेड़ कर कहा–पिया-मिलन ली बेकली है !
प्रभा उदासीन भाव से बोली – कोई मेरे मन में बैठा कह रहा है कि अब उनसे मुलाकात
न होगी ।
सहेली उसके केश सवार कर बोली – जैसे उषाकाल से पहले कुछ अँधेरा हो जाता है, उसी
प्रकार मिलाप के पहले प्रेमियों का मन अधीर हो जाता है ।
प्रभा बोली — नहीं बहिन यह बात नहीं । मुझे शकुन अच्छे नहीं दिखायी देते । आज दिन
भर मेरी आँख फड़कती रही । रात को मैंने बुरे स्वप्न देखे हैं । मुझे शंका होती है
कि आज अवश्य कोई न कोई विघ्न पड़नेवाला है । तुम राणा भोजराज को जानती हो न ?
संध्या हो गयी । आकाश पर तारों के दीपक जले । झालावाड़ में बूढ़े जवान सभी लोग
बारात की अगवानी के लिए तैयार हुए । मरदों ने पागें सँवारी, अस्त्र साजे । युवतियाँ
श्रृंगार कर गातीं-बजाती रनिवास की ओर चलीं । हजारों छत पर बैठी बारात की राह
देख रही थीं ।
अचानक शोर मचा कि बारात आ गयी । लोग सँभल बैठे, नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं,
सलामियाँ गदने लगीं । जवानों ने घोड़ों को एड़ लगायी । एक क्षण में सवारों की एक
सेना राजभवन के सामने आ कर खड़ी हो गयी ।
लोगों को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि यह मंदार की बरात नहीं थी बल्कि
राणा भोजराज की सेना थी ।
झालावाड़ वाले अभी विस्मित खड़े ही थे, कुछ निश्चय न कर सके थे कि क्या करना
चाहिए । इतने में चित्तौड़वालों ने राजभवन को घेर लिया । तब झालावाड़ भी सचेत
हुए । सँभल कर तलवार खींच ली और आक्रमणकारियों पर टूट पड़े । राजा महल में
घुस गया । रनिवास में भगदड़ मच गयी ।
प्रभा सोलहों शृंगार किये सहेलियों के साथ बैठी थी । यह हलचल देखकर घबरायी
इतने में रावसाहब हाँफते हुए आये और बोले – बेटी प्रभा, राणा भोजराज ने हमारे
महल को घेर लिया है । तुम चटपट ऊपर चली जाओ और द्वार को बंद कर लो ।
अगर हम क्षत्रिय हैं, तो एक चित्तौड़ी भी यहाँ से जीता न जायगा ।
रावसाहब बात भी पूरी न करने पाये थे कि राणा कई वीरों के साथ आ पहुँचे और बोले
चित्तौड़वाले तो सिर कटाने के लिए आये ही हैं । पर यदि वे राजपूत हैं तो राजकुमारी
ले कर ही जायँगे ।
वृद्ध रावसाहब की आँखों से ज्वाला निकलने लगी । वे तलवार खींच कर राणा पर झपटे ।
उन्होंने वार बचा लिया और प्रभा से कहा – राजकुमारी, हमारे साथ चलोगी ।
प्रभा सिर झुकाये राणा के सामने आ कर बोली -हाँ चलूँगी ।
रावसाहब को कई आदमियों ने पकड़ लिया था । तड़पकर बोले – प्रभा, तू राजपूत
की कन्या है ?
प्रभा की आँखें सजल हो गयीं । बोली – राणा भी तो राजपूतों के कुलतिलक हैं ।
रावसाहब ने क्रोध में आ कर कहा- निर्लज्जा !
कटार के नीचे पड़ा हुआ बलिदान का पशु जैसी दीन-दृष्टि से देखता है, उसी भाँति
प्रभा ने रावसाहब की ओर देखकर कहा – जिस झालावाड़ की गोद में पली हूँ, क्या
उसे रक्त से रंगवा दूँ ?
रावसाहब ने क्रोध से काँप कर कहा-क्षत्रियों को रक्त प्यारा नहीं होता । मर्यादा पर
प्राण देना उनका धर्म है !
तब प्रभा की आँखें लाल हो गयीं । चेहरा तमतमाने लगा ।
बोली – राजपूत-कन्या अपने सतीत्व की रक्षा आप कर सकती है । इसके लिए
रुधिर प्रवाह की आवश्यकता नहीं ।
पल भर में राणा ने प्रभा को गोद में उठा लिया । बिजली की भाँति झपट कर बाहर
निकले । उन्होंने उसे घोड़े पर बिठा लिया, आप सवार हो गये और घोड़े को उड़ा दिया ।
अन्य चित्तौड़ियों ने भी घोड़ों की बागें मोड़ दीं, उसके सौ जवान भूमि पर पड़े तड़प
रहे थे; पर किसी ने तलवार न उठायी थी ।
रात को दस बजे मंदारवाले भी पहुँचे । मगर यह शोक-समाचार पाते ही लौट गये ।
मंदर-कुमार निराशा से अचेत हो गया । जैसे रात को नदी का किनारा सुनसान हो
जाता है, उसी तरह सारी रात झालावाड़ में सन्नाटा छाया रहा ।

(3)

चित्तौड़ के रंग-महल में प्रभा उदास बैठी सामने के सुन्दर पौधों की पत्तियाँ गिन
रही थी । संध्या का समय था । रंग-बिरंग के पक्षी वृक्षों पर बैठे कलरव कर रहे थे ।
इतने में राणा ने कमरे में प्रवेश किया । प्रभा उठ कर खड़ी हो गयी ।
राणा बोले – प्रभा, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ । मैं बलपूर्वक तुम्हें माता-पिता की
गोद से छीन लाया, पर यदि मैं तुमसे कहूँ कि यह सब तुम्हारे प्रेम से विवश
होकर मैंने किया, तो मन में हँसोगी और कहोगी कि यह निराले,अनूठे ढंग की प्रीति
है; पर वास्तव में यही बात है । जबसे मैंने रणछोड़ जी के मंदिर में तुमको देखा,
तबसे एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता कि मैं तुम्हारी सुधि में विकल न रहा होऊँ । तुम्हें
अपनाने का अन्य कोई उपाय होता, तो मैं कदापि इस पाशविक ढंग से काम न लेता ।
मैंने रावसाहब की सेवा में बारंबार संदेशे भेजे; पर उन्होंने हमेशा मेरी उपेक्षा की
अंत में जब तुम्हारे विवाह की अवधि आ गयी और मैंने देखा कि एक ही दिन में तुम
दूसरे की प्रेम-पात्री हो जाओगी और तुम्हारा ध्यान करना भी मेरी आत्मा को दूषित
करेगा, तो लाचार होकर मुझे यह अनीति करनी पड़ी । मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा
स्वार्थान्धता है । मैंने अपने प्रेम के सामने तुम्हारे मनोगत भावों को कुछ न समझा;
पर प्रेम स्वयं एक बढ़ी हुई स्वार्थपरता है, जब मनुष्य को अपने प्रियतम के सिवाय
और कुछ नहीं सूझता । मुझे पुरा विश्वास था कि मैं अपने विनीत भाव और प्रेम से
तुमको अपना लूँगा । प्रभा, प्यास से मरता हुआ मनुष्य यदि किसी गढ़े में मुँह डाल
दे, तो वह दंड का भागी नहीं है । मैं प्रेम का प्यासा हूँ । मीरा मेरी सहधर्मिणी है
उसका हृदय प्रेम का अगाध सागर है । उसका एक चुल्लू भी मुझे उन्मत्त करने के
लिए काफी था; पर जिस हृदय में ईश्वर का वास हो वहाँ मेरे लिए स्थान कहाँ ।
तुम शायद कहोगी कि यदि तुम्हारे सिर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे
राजपूताने में स्त्रियाँ न थीं । निस्संदेह राज पूताने में सुन्दरता का अभाव नहीं
है और न चित्तौड़ाधिपति की ओर से विवाह की बात-चीत किसी के अनादर का कारण
है; पर इसका जवाब तुम आप ही हो । इसका दोष तुम्हारे ही ऊपर है । राजस्थान
में एक ही चित्तौड़ है, एक ही राणा और एक ही प्रभा । सम्भव है, मेरे भाग्य में
प्रेमानंद भोगना न लिखा हो । यह मैं अपने कर्मलेख को मिटाने का थोड़ा-सा प्रयत्न कर
रहा हूँ; परंतु भाग्य के अधीन बैठे रहना पुरुषों का काम नहीं है । मुझे इसमें सफलता
होगी या नहीं, इसका फैसला तुम्हारे हाथ है ।
प्रभा की आँखें जमीन की तरफ थीं और मन फुदकनेवाली चिड़िया की भाँति इधर-उधर
उड़ता फिरता था ।
वह झालावाड़ को मारकाट से बचाने के लिए राणा के साथ आयी थी, मगर राणा के प्रति
उसके हृदय में क्रोध की तरंगे उठ रही थीं । उसने सोचा था कि वे यहाँ आयेंगे तो
उन्हें राजपूत कुल-कलंक,अन्यायी, दुराचारी, दुरात्मा, कायर कह कर उनका गर्व चूर-
चूर कर दूँगी । उसको विश्वास था कि यह अपमान उनसे न सहा जायगा और वे मुझे
बलात् अपने काबू में लाना चाहेंगे । इस अंतिम समय के लिए उसने अपने हृदय को
खूब मजबूत और अपनी कटार को खूब तेज कर रखा था । उसने निश्चय कर लिया था
कि इसका एक वार उन पर होगा, दूसरा अपने कलेजे पर और इस प्रकार यह पाप-कांड
समाप्त हो जायगा । लेकिन राना की नम्रता, उनकी करुणात्मक विवेचना और उनके
विनीत भाव ने प्रभा को शांत कर दिया । आग पानी से बुझ जाती है । राना कुछ देर वहाँ
बैठे रहे, फिर उठ कर चले गये ।

(4)

प्रभा को चित्तौड़ में रहते दो महीने गुजर चुके हैं । राणा उसके पास फिर न आये । इस
बीच में उनके विचारों में कुछ अंतर हो गया है । झालावाड़ पर आक्रमण होने के पहले
मीराबाई को इसकी बिलकुल खबर न थी । राणा ने इस प्रस्ताव को गुप्त रखा था । किंतु
अब मीराबाई प्रायः उन्हें इस दुराग्रह पर लज्जित किया करती है और धीरे धीरे राणा को
भी विश्वास होने लगा है कि प्रभा इस तरह काबू में नहीं आ सकती । उन्होंने उसके
सुख-विलास की सामग्री एकत्र करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी । लेकिन प्रभा
उनकी तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखती । राणा प्रभा की लौंडियों से नित्य समाचार
पूछा करते हैं और उन्हें रोज ही वही निराशापूर्ण वृत्तांत सुनायी देता है । मुरझायी
हुई कली किसी भाँति नहीं खिलती । अतएव उनको कभी कभी अपने इस दुस्साहस
पर पश्चाताप होता । वे पछताते हैं कि मैंने व्यर्थ ही यह अन्याय किया । लेकिन
फिर प्रभा का अनुपम सौंदर्य नेत्रों के सामने आ जाता है और वह अपने मन को इस
विचार से समझा लेते हैं कि एक सगर्वा सुंदरी का प्रेम इतनी जल्दी परवर्तित नहीं हो
सकता । निस्संदेह मेरा मृदु व्यवहार कभी न कभी अपना प्रभाव दिखलायेगा ।
प्रभा सारे दिन अकेली बैठी-बैठी उकताती और झुँझलाती थी ।
उसके विनोद के निमित्त कई गानेवाली स्त्रियाँ नियुक्त थीं; किंतु राग-रंग से उसे
अरुचि हो गयी थी । वह प्रतिक्षण चिंताओं में डूबी रहती थी ।
राणा के नम्र भाषण का प्रभाव अब मिट चुका था और उनकी अमानुषिक वृत्ति अब फिर
अपने यथार्थ रूप में दिखायी देने लगी थी । वाक्य चतुरता शांति कारक नहीं होती । वह
केवल निरुत्तर कर देती है ! प्रभा को अब अपने अवाक् हो जाने पर आश्चर्य होता है ।
उसे राणा की बातों के उत्तर भी सूझने लगे हैं । वह कभी कभी उनसे लड़कर अपनी
किस्मत का फैसला करने के लिए विकल हो जाती है ।
मगर अब वाद-विवाद किस काम का ? वह सोचती है कि मैं रावसाहब की कन्या हूँ;
पर संसार की दृष्टि में राणा की रानी हो चुकी । अब यदि में इस कैद से छूट भी
जाऊँ तो मेरे लिए कहाँ ठिकाना है ? मैं कैसे मुँह दिखाऊँगी ? इससे केवल मेरे वंश
का ही नहीं, वरन् समस्त राजपूत-जाति का नाम डूब जायगा । मंदार-कुमार मेरे
सच्चे प्रेमी हैं । मगर क्या वे मुझे अंगीकार करेंगे ? और यदि वे निंदा की परवाह
न करके मुझे ग्रहण भी कर लें तो उनका मस्तक सदा के लिए नीचा हो जायगा और
कभी न कभी उनका मन मेरी तरफ से फिर जायगा । वे मुझे अपने कुल का कलंक
समझने लगेंगे । या यहाँ से किसी तरह भाग जाऊँ ? लेकिन भाग कर जाऊँ कहाँ ?
बाप के घर ? वहाँ अब मेरी पैठ नहीं । मंदार कुमार के पास ? इसमें उनका अपमान
है और मेरा भी । तो क्या भिखारिणी बन जाऊँ ? इसमें भी जग-हँसाई होगी और न जाने
प्रबल भावी किस मार्ग पर ले जाय । एक अबला स्त्री के लिए सुंदरता प्राणघातक यंत्र
से कम नहीं । ईश्वर, वह दिन न आये कि मैं क्षत्रिय-जाति का कलंक बनूँ । क्षत्रिय
जाति ने मर्यादा के लिए पानी की तरह रक्त बहाया है । उनको हजारों देवियाँ पर-पुरुष
का मुँह देखने के भय से सूखी लकड़ी के समान जल मरी हैं । ईश्वर, वह घड़ी न आये
कि मेरे कारण किसी राजपूत का सिर लज्जा से नीचा हो । नहीं, मैं इस कैद में मर
जाऊँगी । राणा के अन्याय सहूँगी, जलूँगी, मरूँगी, पर इसी घर में । विवाह जिससे
होना था, हो चुका । हृदय में उसकी उपासना करूँगी, पर कंठ के बाहर उसका नाम
न निकालूँगी ।
एक दिन झुँझला कर उसने राणा को बुला भेजा । वे आये । उनका चेहरा उतरा था ।
वे कुछ चिंतित-से थे । प्रभा कुछ कहना चाहती थी पर उनकी सूरत देख कर उसे उन पर दया
आ गयी । उन्होंने उसे बात करने का अवसर न दे कर स्वयं कहना शुरु किया ।
“प्रभा, तुमने आज मुझे बुलाया है । यह मेरा सौभाग्य है । तुमने मेरी सुधि तो ली मगर
यह मत समझो कि मैं मृदु-वाणी सुनने की आशा ले कर आया हूँ । नहीं, मैं जानता हूँ,
जिसके लिए तुमने मुझे बुलाया है । यह लो, तुम्हारा अपराधी तुम्हारे सामने खड़ा है ।
उसे जो दंड चाहो, दो । मुझे अब तक आने का साहस न हुआ । इसका कारण यही
दंड-भय था । तुम क्षत्राणी हो और क्षत्राणियाँ क्षमा करना नहीं जानतीं । झालावाड़
में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयं उद्यत हो गयीं, तो मैंने उसी क्षण तुम्हारे जौहर
परख लिये । मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारा हृदय बल और विश्वास से भरा हुआ है ।
उसे काबू में लाना सहज नहीं । तुम नहीं जानती कि यह एक मास मैंने किसी तरह
काटा है । तड़प-तड़प कर मर रहा हूँ, पर जिस तरह शिकारी बिफरी हुई सिंहनी के
सम्मुख जाने से डरता है, वही दशा मेरी थी । मैं कई बार आया । यहाँ तुमको उदास
तिउरियाँ चढ़ाये बैठे देखा । मुझे अंदर पैर रखने का साहस न हुआ; मगर आज मैं बिना
बुलाया मेहमान नहीं हूँ । तुमने मुझे बुलाया है और तुम्हें अपने मेहमान का स्वागत
करना चाहिए । हृदय से न सही–जहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित हो, वहाँ ठंडक कहाँ ? बातों ही
से सही, अपने भावों को दबा कर ही सही, मेहमान का स्वागत करो । संसार में शत्रु का
आदर मित्रों से भी अधिक किया जाता है ।
` प्रभा, एक क्षण के लिए क्रोध को शांत करो और मेरे अपराधों पर विचार करो । तुम
मेरे ऊपर यही दोषारोपण कर सकती हो कि मैं तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया ।
तुम जानती हो, कृष्ण भगवान रुक्मिणी को हर लाये थे । राजपूतों में यह कोई नयी
बात नहीं है । तुम कहोगी, इससे झालावाड़ वालों का अपमान हुआ; पर ऐसा कहना
कदापि ठीक नहीं । झालावाड़ वालों ने वही किया, जो मर्दों का धर्म था । उनका
पुरुषार्थ देख कर हम चकित हो गये । यदि वे कृतकार्य नहीं हुए तो यह उनका
दोष नहीं है । वीरों की सदैव जीत नहीं होती । हम इसलिए सफल हुए कि हमारी
संख्या अधिक थी और इस काम के लिए तैयार हो कर गये थे । वे निश्शंक थे,
इस कारण उनकी हार हुई । यदि हम वहाँ से शीघ्र ही प्राण बचा कर भाग न आते
तो हमारी गति वही होती जो रावसाहब ने कही थी । एक भी चितौड़ी न बचता । लेकिन
ईश्वर के लिए यह मत सोचो कि मैं अपने अपराध के दूषण को मिटाना चाहता हूँ । नहीं
, मुझसे अपराध हुआ है और मैं हृदय से उस पर लज्जित हूँ । पर अब तो जो कुछ होना
था, हो चुका । अब इस बिगड़े हुए खेल को मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ । यदि मुझे
तुम्हारे हृदय मे कोई स्थान मिले तो मैं उसे स्वर्ग समझूँगा । डूबते हुए को तिनके
का सहारा भी बहुत है । क्या यह संभव है ?”
प्रभा बोली–नहीं ।
राणा — झालावाड़ जाना चाहती हो ?
प्रभा — नहीं ।
राणा –मंदार के राजकुमार के पास भेज दूँ ?
प्रभा – कदापि नहीं ।
राणा – लेकिन मुझसे यह तुम्हारा कुढ़ना देखा नहीं जाता ।
प्रभा – आप इस कष्ट से शीघ्र ही मुक्त हो जायँगे ।
राणा ने भयभीत दृष्टि से देख कर कहा, “जैसी तुम्हारी इच्छा,” और वे वहाँ से
उठ कर चले गये ।

(5)

दस बजे रात का समय था । रणछोड़ जी के मंदिर में कीर्तन समाप्त हो चुका था
और वैष्णव साधु बैठे हुए प्रसाद पा रहे थे । मीरा स्वयं अपने हाथों से थाल ला-ला कर
उनके आगे रखती थी । साधुओं और अभ्यागतों के आदर-सत्कार में उस देवी को आत्मिक
आनंद प्राप्त होता था । साधुगण जिस प्रेम से भोजन करते थे, उससे यह शंका होती थी
कि स्वादपूर्ण वस्तुओं में कहीं भक्ति-भजन से भी अधिक सुख तो नहीं है । यह सिद्ध हो
चुका है कि ईश्वर की दी हुई वस्तुओं का सदुपयोग ही ईश्वरोपासना की मुख्य रीति है ।
इसलिए ये महात्मा लोग उपासना के ऐसे अच्छे अवसरों को क्यों खोते ? वे कभी पेट पर
हाथ फेरते और कभी आसन बदलते थे । मुँह से `नहीं’ कहना तो वे घोर पाप के
समान समझते थे ।
यह भी मानी हुई बात है कि जैसी वस्तुओं का हम सेवन करते हैं, वैसी ही आत्मा भी
बनती है । इसलिए वे महात्मागण घी और खौये से उदर को खूब भर रहे थे ।
पर उन्हीं में एक महात्मा ऐसे भी थे जो आँखें बंद किये ध्यान में मग्न थे । थाल की
ओर ताकते भी न थे । इनका नाम प्रेमानंद था । ये आज ही आये थे । इनके चेहरे पर
कांति झलकती थी । अन्य साधु खा कर उठ गये, परंतु उन्होंने थाल छुआ भी नहीं ।
मीरा ने हाथ जोड़ कर कहा – महाराज, आपने प्रसाद को छुआ भी नहीं ।
दासी से कोई अपराध तो नहीं हुआ ?
साधु – नहीं, इच्छा नहीं थी ।
मीरा – पर मेरी विनय आपको माननी पड़ेगी ।
साधु – मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा, तो तुमको भी मेरी एक बात माननी होगी ।
मीरा – कहिए क्या आज्ञा है ।
साधु – माननी पड़ेगी ।
मीरा – मानूँगी ।
साधु – वचन देती हो ?
मीरा – वचन देती हूँ, आप प्रसाद पायें ।
मीराबाई ने समझा था कि साधु कोई मंदिर बनवाने या कोई यज्ञ पूर्ण करा देने की याचना
करेगा । ऐसी बातें नित्यप्रति हुआ ही करती थीं और मीरा का सर्वस्व साधु-सेवा के लिए
अर्पित था; परंतु उसके लिए साधु ने ऐसी कोई याचना न की । वह मीरा के कानों के पास
मुँह ले जाकर बोला–आज दो घंटे के बाद राज-भवन का चोर दरवाजा खोल देना ।
मीरा विस्मित हो कर बोली–आप कौन हैं ?
साधु – मंदार का राजकुमार ।
मीरा ने राजकुमार को सिर से पाँव तक देखा । नेत्रों में आदर की जगह घृणा थी ।
कहा – राजपूत यों छल नहीं करते ।
राजकुमार – यह नियम उस अवस्था के लिए है जब दोनों पक्ष समान शक्ति रखते हों ।
मीरा – ऐसा नहीं हो सकता ।
राजकुमार – आपने वचन दिया है, उसका पालन करना होगा ।
मीरा – महाराज की आज्ञा के सामने मेरे वचन का कोई महत्त्व नहीं ।
राजकुमार – मैं यह कुछ नहीं जानता । यदि आपको अपने वचन की कुछ भी मर्यादा
रखनी है तो उसे पूरा कीजिए ।
मीरा – (सोचकर) महल में जा कर क्या करोगे ?
राजकुमार – नयी रानी से दो-दो बातें ।
मीरा चिंता में विलीन हो गयी । एक तरफ राणा की कड़ी आज्ञा थी और दूसरी तरफ अपना
वचन और उसका पालन करने का परिणाम । कितनी ही पौराणिक घटनाएँ उसके सामने आ
रही थीं । दशरथ ने वचन पालने के लिए अपने प्रिय पुत्र को वनवास दे दिया । मैं वचन
दे चुकी हूँ । उसे पूरा करना मेरा परम धर्म है; लेकिन पति की आज्ञा को कैसे
तोड़ूँ ? यदि उनकी आज्ञा के विरुद्ध करती हूँ तो लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं ।
क्यों न उनसे स्पष्ट कह दूँ । क्या वे मेरी यह प्रार्थना स्वीकार न करेंगे ? मैंने
आज तक उनसे कुछ नहीं माँगा । आज उनसे यह दान मागूँगी । क्या वे मेरे वचन की
मर्यादा की रक्षा करेंगे ? उनका हृदय कितना विशाल है ! निस्संदेह वे मुझ पर वचन
तोड़ने का दोष न लगने देंगे ।
इस तरह मन में निश्चय करके वह बोली – कब खोलदूँ ?
राजकुमार ने उछल कर कहा–आधी रात को ।
मीरा – मैं स्वयं तुम्हारे साथ चलूँगी ।
राजकुमार – क्यों ?
मीरा – तुमने मेरे साथ छल किया है । मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है ।
राजकुमार ने लज्जित होकर कहा–अच्छा, तो आप द्वार पर खड़ी रहिएगा ।
मीरा – यदि फिर कोई दगा किया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा ।
राजकुमार – मैं सब कुछ सहने के लिए तैयार हूँ ।

(6)

मीरा यहाँ से राणा की सेवा में पहुँची । वे उसका बहुत आदर करते थे । वे खड़े हो
गये । इस समय मीरा का आना एक असाधारण बात थी । उन्होंने पूछा– बाईजी, क्या
आज्ञा है ?
मीरा – आपसे भिक्षा माँगने आयी हूँ । निराश न कीजिएगा । मैंने आज तक आपसे कोई
विनती नहीं की; पर आज एक ब्रह्म-फाँस में फँस गयी हूँ । इसमें से मुझे आप ही निकाल
सकते हैं ? मंदार के राजकुमार को तो आप जानते हैं ?
राजा – हाँ अच्छी तरह ।
मीरा – आज उसने मुझे बड़ा धोखा दिया । एक वैष्णव महात्मा का रूप धारण कर रणछोड़
जी के मंदिर में आया और उसने छल करके मुझे वचन देने पर बाध्य किया । मेरा साहस
नहीं होता कि उसकी कपट विनय आपसे कहूँ ।
राणा – प्रभा से मिला देने को तो कहा ?
मीरा – जी हाँ, उसका अभिप्राय वही है । लेकिन सवाल यह है कि मैं आधी रात को राज
महल का गुप्त द्वार खोल दूँ । मैंने उसे बहुत समझाया ; बहुत धमकाया; पर वह किसी
भाँति न माना । निदान विवश हो कर जब मैंने कह दिया तब उसने प्रसाद पाया, अब मेरे
वचन की लाज आपके हाथ है । आप चाहें उसे पूरा करके मेरे मान रखें, चाहे उसे तोड़
कर मेरा मान तोड़ दें । आप मेरे ऊपर जो कृपादृष्टि रखते हैं, उसी के भरोसे मैंने
वचन दिया । अब मुझे इस फंदे से उबारना आपका काम है ।
राणा कुछ देर सोचकर बोले– तुमने वचन दिया है, उसका पालन करना मेरा कर्त्तव्य है ।
तुम देवी हो, तुम्हारे वचन नहीं टल सकते । द्वार खोल दो । लेकिन यह उचित नहीं है
कि वह अकेले प्रभा से मुलाकात करे । तुम स्वयं उसके साथ जाना । मेरी खातिर से इतना
कष्ट उठाना । मुझे भय है कि वह उसकी जान लेने का इरादा करके न आया हो ।
ईर्ष्या में मनुष्य अंधा हो जाता है । बाई जी, मैं अपने हृदय की बात तुमसे
कहता हूँ । मुझे प्रभा को हर लाने का अत्यंत शोक है । मैंने समझा था कि यहाँ रहते-
रहते यह हिल मिल जायगी; किंतु वह अनुमान गलत निकला ।
कुछ दिन यहाँ और रहना पड़ा तो वह जीती न बचेगी । मुझ पर एक अबला की हत्या का
अपराध लग जायगा । मैंने उससे झालावाड़ जाने के लिए कहा,पर वह राजी न हुई । आज
तुम उन दोनों की बातें सुनों । अगर वह मंदार-कुमार के साथ जाने पर राजी हो, तो मैं
प्रसन्नता-पूर्वक अनुमति दे दूँगा । मुझसे कुढ़ना नहीं देखा जाता । ईश्वर इस सुंदरी
का हृदय मेरी ओर फेर देता तो मेरा जीवन सफल हो जाता । किंतु जब यह भाग्य में
लिखा ही नहीं है तो क्या वश है । मैंने तुमसे ये बातें कही, इसके लिए मुझे क्षमा
करना । तुम्हारे पवित्र हृदय में ऐसे विषयों के लिए स्थान कहाँ ?
मीरा ने आकाश की ओर संकोच से देखकर कहा-तो मुझे आज्ञा है ? मैं चोर-द्वार खोल दूँ ?
राणा – तुम इस घर की स्वामिनी हो , मुझसे पूछने की जरूरत नहीं । मीरा राणा को
प्रणाम कर चली गयी ।

(7)

आधी रात बीत चुकी थी । प्रभा चुपचाप बैठी दीपक की ओर देख रही थी और सोचती थी
इसके घुलने से प्रकाश होता है; यह बत्ती अगर जलती है तो दूसरों को लाभ पहुँचाती
है । मेरे जलने से किसी को क्या लाभ ? मैं क्यों घुलूँ ? मेरे जीने की जरूरत है ।
उसने फिर खिड़की से सिर निकाल कर आकाश की तरफ देखा । काले पट पर उज्ज्वल
तारे जगमगा रहे थे । प्रभा ने सोचा, मेरे अंधकारमय भाग्य में ये दीप्तिमान तारे
कहाँ हैं, मेरे लिए जीवन के सुख कहाँ हैं ? क्या रोने के लिए जीऊँ ? ऐसे जीने से
क्या लाभ ? ऐसे जीने में उपहास भी तो है । मेरे मन का हाल कौन जानता है ?
संसार मेरी निंदा करता होगा । झालावाड़ की स्त्रियाँ मेरे मृत्यु के शुभ समाचार
सुनने की प्रतीक्षा कर रही होंगी । मेरी प्रिय माता लज्जा से आँखें न उठा सकती होगी
लेकिन जिस समय मेरे मरने की खबर मिलेगी, गर्व से उनका मस्तक ऊँचा हो जायगा ।
यह बेहयाई का जीना है । ऐसे जीने से मरना कहीं उत्तम है ।
प्रभा ने तकिये के नीचे से एक चमकती हुई कटार निकाली । उसके हाथ काँप रहे थे ।
उसने कटार की तरफ आँखें जमायीं ।
हृदय को उसके अभिवादन के लिए मजबूत किया । हाथ उठाया, किंतु हाथ न उठा ;
आत्मा दृढ़ न थी । आँखें झपक गयीं । सिर में चक्कर आ गया । कटार हाथ से छूट कर
जमीन पर गिर पड़ी ।
प्रभा निर्लज्ज हो कर सोचने लगी – क्या मैं वास्तव में निर्लज्ज हूँ ? मैं राजपूतनी
होकर मरने से डरती हूँ ? मान-मर्यादा खो कर बेहया लोग ही जिया करते हैं । वह
कौन-सी आकांक्षा है जिसने मेरी आत्मा को इतना निर्बल बना रखा है । क्या राणा की
मीठी=मीठी बातें ? राणा मेरे शत्रु हैं । उन्होंने मुझे पशु समझ रखा है,जिसे फँसाने
के पश्चात् हम पिंजरे में बंद करके हिलाते हैं । उन्होंने मेरे मन को अपनी वाक्य-
मधुरता का क्रीड़ा-स्थल समझ लिया है । वे इस तरह घुमा-घुमा कर बातें करते हैं
और मेरी तरफ से युक्तियाँ निकाल कर उनका ऐसा उत्तर देते हैं कि जबान ही बंद हो
जाती है । हाय ! निर्दयी ने मेरा जीवन नष्ट कर दिया और मुझे यों खेलाता है ! क्या
इसलिए जीऊँ कि उसके कपट भावों का खिलौना बनूँ ?
फिर वह कौन-सी अभिलाषा है ? क्या राजकुमार का प्रेम ? उनकी तो अब कल्पना ही
मेरे लिए घोर पाप है । मैं अब देवता के योग्य नहीं हूँ, प्रियतम ! बहुत दिन हुए
मैंने तुमको हृदय से निकाल दिया । तुम भी मुझे दिल से निकाल डालो । मृत्यु के
सिवाय अब मेरा ठिकाना नहीं है । शंकर ! मेरी निर्बल आत्मा को शक्ति प्रदान करो ।
मुझे कर्तव्य-पालन का बल दो ।
प्रभा ने फिर कटार निकाली । इच्छा दृढ़ थी । हाथ उठा और निकट था कि कटार उसके
शोकातुर हृदय में चुभ जाय कि इतने में किसी के पाँव की आहट सुनायी दी । उसने चौंक
कर सहमी हुई दृष्टि से देखा । मंदार-कुमार धीरे धीरे पैर दबाता हुआ कमरे में दाखिल
हुआ ।

(8)

प्रभा उसे देखते ही चौंक पड़ी । उसने कटार को छिपा लिया । राजकुमार को देख कर उसे
आनन्द की जगह भय उत्पन्न हुआ । यदि किसी को जरा भी संदेह हो गया तो इनका प्राण
बचना कठिन है । इनको तुरंत यहाँ से निकल जाना चाहिए । यदि इन्हें बातें करने का
अवसर दूँ तो विलम्ब होगा और फिर ये अवश्य ही फँस जायँगे । राणा इन्हें कदापि न
छोड़ेंगे ।
वे विचार वायु और बिजली की व्यग्रता के साथ उसके मस्तिष्क में दौड़े । वह तीव्र
स्वर में बोली – भीतर मत आओ ।
राजकुमार ने पूछा – मुझे पहचाना नहीं ?
प्रभा – खूब पहचान लिया ; किंतु यह बातें करने का समय नहीं है । राणा तुम्हारी घात
में है । अभी यहाँ से चले जाओ ।राजकुमार ने एक पग और आगे बढ़ाया और निर्भीकता
से कहा–प्रभा, तुम मुझसे निष्ठुरता करती हो ।
प्रभा ने धमका कर कहा – तुम यहाँ ठहरोगे तो मैं शोर मचा दूँगी ।
राजकुमार ने उद्दंडता से उत्तर दिया – इसका मुझे भय नहीं । मैं अपनी जान हथेली पर
रख कर आया हूँ । आज दोनों में से एक का अंत हो जायगा । या तो राणा रहेंगे या
मैं रहूँगा । तुम मेरे साथ चलोगी ?
प्रभा ने दृढ़ता से कहा — नहीं ।
राजकुमार व्यंग्य भाव से बोला – क्यों चित्तौड़ का जलवायु पसंद आ गया ?
प्रभा ने राजकुमार की ओर तिरस्कृत नेत्रों से देखकर कहा – संसार में अपनी सब आशाएँ
पूरी नहीं होतीं । जिस तरह यहाँ मैं अपना जीवन काट रही हूँ, वह मैं ही जानती हूँ :
किंतु लोकनिंदा भी तो कोई चीज है ! संसार की दृष्टि में मैं चित्तौड़ की रानी हो
चुकी । अब राणा जिस भाँति रखें उसी भाँति रहूँगी । मैं अंत समय तक उनसे घृणा
करूँगी, जलूँगी, कूढ़ूँगी । जब जलन न सही जायगी, तो विष खा लूँगी या छाती में
कटार मार कर मर जाऊँगी; लेकिन इसी भवन में । इस घर के बाहर कदापि पैर न
रखूँगी ।
राजकुमार के मन में संदेह हुआ कि प्रभा पर राणा का वशीकरण मंत्र चल गया । यह
मुझसे छल कर रही है । प्रेम की जगह ईर्ष्या पैदा हुई । वह उसी भाव से बोला – और
यदि मैं यहाँ से उठा ले जाऊँ ? प्रभा के तीवर बदल गये । बोली – तो मैं वही करूँगी
जो ऐसी अवस्था में क्षत्राणियाँ किया करती हैं । अपने गले में छुरी मार लूँगी या
तुम्हारे गले में ।
राजकुमार एक पग और आगे बढ़ा कर यह कटु-वाक्य बोला – राणा के साथ तो तुम खुशी
से चली आयी । उस समय छुरी कहाँ गयी थी ?
प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा । वह तिलमिला कर बोली–उस समय इसी छुरी के एक वार
से खून की नदी बहने लगती । मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे बंधुओं की जान
जाय । इसके सिवाय मैं कुँआरी थी । मुझे अपनी मर्यादा के भंग होने का कोई भय न था ।
मैंने पातिव्रत नहीं लिया । कम से कम संसार मुझे ऐसा समझता था । मैं अपनी दृष्टि
में अब भी वही हूँ, किंतु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गयी हूँ । लोकलाज ने मुझे
राणा की आज्ञाकारिणी बना दिया है । पातिव्रत की बेड़ी जबरदस्ती मेरे पैरों में डाल
दी गयी है । अब इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है । इसके विपरीत और कुछ करना
छत्राणियों के नाम को कलंकित करना है । तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते
हो ? यह कौन सी भलमनसी है । मेरे भाग्य में जो कुच बदा है, वह भोग रही हूँ । मुझे
भोगने दो और तुमसे विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ ।
राजकुमार एक पग और बढ़ा कर दुष्ट-भाव से बोला –प्रभा, यहाँ आ कर तुम त्रियाचरित्र
में निपुण हो गयी । तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की आड़ ले रही हो ।
तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना ढूँढ़ रही हो ।
मैं इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौंदर्य पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता ।
मेरी कामनाएँ मिट्टी में मिलती हैं तो तुम्हें ले कर जायेगा । मेरा जीवन नष्ट होता
है तो उसके पहले तुम्हारे जीवन का भी अंत होगा । तुम्हारी बेवफाई का यही दंड
है । बोलो, क्या निश्चय करती हो ? इस समय मेरे साथ चलती हो या नहीं ?
किले के बाहर मेरे आदमी खड़े हैं ।
प्रभा ने निर्भयता से कहा — नहीं ।
राजकुमार — सोचलो, नहीं तो पछताओगी ।
प्रभा –खूब सोच लिया ।
राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ लपके । प्रभा भय से आँखें बंद
किये । एक कदम पीछे हट गयी । मालूम होता था, उसे मूर्छा आ जायगी ।
अकस्मात् राणा तलवार लिये वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए । राजकुमार सँभल कर
खड़ा हो गया ।
राणा ने सिंह के समान गरज कर कहा–दूर हट । क्षत्रिय स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते ।
राजकुमार ने तन कर उत्तर दिया – लज्जाहीन स्त्रियों की यही सजा है ।
राणा ने कहा –तुम्हारा वैरी तो मैं था । मेरे सामने आते क्यों लजाते थे । जरा मैं
भी तुम्हारी तलवार की काट देखता ।
राजकुमार ने ऐंठ कर राणा पर तलवार चलायी । शस्त्र -विद्या में राणा अति कुशल थे ।
वार खाली दे कर राजकुमार पर झपटे । इतने में प्रभा, जो मूर्छित अवस्था में दीवार से
चिमटी खड़ी थी, बिजली की तरह कौंध कर राजकुमार के सामने खड़ी हो गयी । राणा वार
कर चुके थे । तलवार का पूरा हाथ उसके कंधे पर पड़ा । रक्त की फूहार छूटने लगी ।
राणा ने ठंडी साँस ली और उन्होंने तलवार हाथ से फेंक कर गिरती हुई प्रभा को सँभाल
लिया ।
क्षणमात्र में प्रभा का मुखमंडल वर्ण-विहीन हो गया । आँखें बुझ गयीं । दीपक ठंडा हो
गया । मंदार कुमार ने भी तलवार फेंक दी और वह आँखों में आँसू भर प्रभा के सामने
घुटने टेक कर बैठ गया । दोनों प्रेमियों की आँखें सजल थीं । पतिंगे बुझे हुए दीपक
पर जान दे रहे थे ।
प्रेम के रहस्य निराले हैं । अभी एक क्षण हुआ राजकुमार प्रभा पर तलवार ले कर झपटा
था । प्रभा किसी प्रकार उसके साथ चलने पर उद्यत न होती थी । लज्जा का भय , धर्म की
बेड़ी,कर्तव्य की दीवार रास्ता रोके खड़ी थी । परंतु उसे तलवार के सामने देख कर
उसने उस पर अपना प्राण अर्पण कर दिया । प्रीति की प्रथा निबाह दी, लेकिन अपने वचन
के अनुसार उसी घर में ।
हाँ प्रेम के रहस्य निराले हैं । अभी एक क्षण पहले राजकुमार प्रभा पर तलवार ले कर
झपटा था । उसके खून का प्यासा था । ईर्या की अग्नि उसके हृदय में दहक रही थी ।
वह रुधिर की धारा से शांत हो गयी । कुछ देर तक वह अचेत बैठा रहा । फिर उठा और
उसने तलवार उठा कर जोर से अपनी छाती में चुभा ली । फिर रक्त की फुहार निकली ।
दोनों धाराएँ मिल गयीं और उनमें कोई भेद न रहा ।
प्रभा उसके साथ चलने पर राजी न थी । किंतु वह प्रेम के बंधन को तोड़ न सकी ।
दोनों उस घर ही से नहीं, संसार से एक साथ सिधारे ।

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