मानसरोवर भाग 2

पाप का अग्निकुण्ड

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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कुँवर पृथ्वीसिंह महाराज यशवंतसिंह के पुत्र थे । रूप, गुण और विद्या में प्रसिद्ध
थे । ईरान, मिस्र, श्याम आदि देशों में परिभ्रमण कर चुके थे और कई भाषाओं के पंडित
समझे जाते थे । इनकी एक बहन थी जिसका नाम राजनंदिनी था । यह भी जैसी सुरूपवती
और सर्वगुणसंपन्ना थी वैसी ही प्रसन्नवदना और मृदुभाषिणी भी थी । कड़वी बात कह कर
किसी का जी दुखाना उसे पसंद नहीं था । पाप को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने
देती थी । यहाँ तक कि कई बार महाराज यशवंतसिंह से भी वाद-विवाद कर चुकी थी
और जब कभी उन्हें किसी बहाने कोई अनुचित काम करते देखती, तो उसे यथाशक्ति
रोकने की चेष्टा करती । इसका ब्याह कुँवर धर्मसिंह से हुआ था । यह एक छोटी
रियासत का अधिकारी और महाराज यशवंतसिंह की सेना का उच्च पदाधिकारी था ।
धर्मसिंह बड़ा उदार और कर्मवीर था । इसे होनहार देखकर महाराज ने राजनंदिनी को
इसके साथ ब्याह दिया था और बड़े प्रेम से अपना वैवाहिक जीवन बिताते थे । धर्मसिंह
अधिकतर जोधपुर में ही रहता था । पृथ्वीसिंह उसके गाढ़े मित्र थे । इनमें जैसी
मित्रता थी, वैसी भाइयों में भी नहीं होती । जिस प्रकार इन दोनों राजकुमारों में
मित्रता थी, उसी प्रकार दोनों राजकुमारियाँ भी एक दूसरी पर जान देती थीं । पृथ्वी
सिंह की स्त्री दुर्गाकुँवरि बहुत सुशील और चतुरा थी । ननद -भावज में अनबन होना
लोक-रीति है, पर इन दोनों में इतना स्नेह था कि एक के बिना दूसरी को भी कल
नहीं पड़ता था । दोनों स्त्रियाँ संस्कृत से प्रेम रखती थीं ।
एक दिन दोनों राजकुमारियाँ बाग की सैर में मग्न थीं कि एक दासी ने राजनंदिनी के हाथ
में एक कागज ला कर रख दिया । राजनंदिनी ने उसे खोला तो वह संस्कृत का एक पत्र था ।
उसे पढ़ कर उसने दासी से कहा कि उन्हें भेज दे । थोड़ी देर में एक स्त्री सिर से
पैर तक चादर ओढ़े आती दिखायी दी । इसकी उम्र 25 साल से अधिक न थी, पर रंग पीला
था । आँखें बड़ी और ओठ सूखे ।
चालढाल में कोमलता थी और उसके डील-डौल की गठन बहुत मनोहर थी । अनुमान से जान
पड़ता था कि समय ने इसकी यह दशा कर रखी है । पर एक समय वह भी होगा जब यह
बड़ी सुंदर होगी । इस स्त्री ने आकर चौखट चूमी और आशीर्वाद दे कर फर्श पर बैठ गयी ।
राजनंदिनी ने इसे सिर से पैर तक बड़े ध्यान से देखा और पूछा, “तुम्हारा नाम क्या
है ?”
उसने उत्तर दिया, “मुझे व्रजविलासिनी कहते हैं ।”
“कहाँ रहती हो ?”
” यहाँ से तीन दिन की राह पर एक गाँव विक्रमनगर है, वहाँ मेरा घर है ।”
“संस्कृत कहाँ पढ़ी है ?”
“मेरे पिता जी संस्कृत के बड़े पंडित थे, उन्होंने थोड़ी बहुत पढ़ा दी है ।”
“तुम्हारा ब्याह तो हो गया है ना ?”
ब्याह का नाम सुनते ही व्रजविलासिनी की आँखों से आँसू बहने लगे । वह आवाज सम्हाल कर
बोली–इसका जवाब मैं फिर कभी दूँगी, मेरी रामकहानी बड़ी दुःखमय है । उसे सुनकर आपको
दुःख होगा इसलिए इस समय क्षमा कीजिए ।
आज से व्रजविलासिनी वहीं रहने लगी । संस्कृत-साहित्य मैं उसका बहुत प्रवेश था । वह
राजकुमारियों को प्रतिदिन रोचक कविता पढ़ कर सुनाती थी । उसके रंग, रूप और विद्या
ने धीरे धीरे राजकुमारियों के मन में उसके प्रति प्रेम और प्रतिष्ठा उत्पन्न कर
दी । यहाँ तक कि राजकुमारियों और व्रजविलासिनी के बीच बड़ाई-छुटाई उठ गयी और वे
सहेलियों की भाँति रहने लगीं ।

(2)

कई महीने बीत गये । कुँवर पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह दोनों महाराज के साथ अफगानिस्तान
की मुहीम पर गये हुए थे । यह विरह की घड़ियाँ मेघदूत और रघुवंश के पढ़ने में कटीं ।
व्रजविलासिनी को कालिदास के देवता से बहुत प्रेम था । और वह उनके काव्यों की
व्याख्या उत्तमता से करती और उसमें ऐसी बारीकियाँ निकालती कि दोनों राजकुमारियाँ
मुग्ध हो जातीं ।
एक दिन संध्या का समय था,दोनों राजकुमारियाँ फुलवाड़ी में सैर करने गयीं तो देखा कि
व्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं । राज-
कुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बातचीत से उसकी सुन्दरता कुछ चमक गयी थी ।
इनके साथ अब वह भी राजकुमारी जान पड़ती थी; पर इन सभी बातों के रहते भी वह
बेचारी बहुधा एकांत में बैठ कर रोया करती । उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह
उसे दम भर भी चैन नहीं लेने देती थी । राजकुमारियाँ उस समय उसे रोती देख कर बड़ी
सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गयीं । राजनंदिनी ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रख
लिया और उसके गुलाब-से-गालों को थप-थपाकर कहा–सखी, तुम अपने दिल का हाल हमें
न बताओगी ? क्या अब भी हम गैर हैं ? तुम्हारा यों अकेले दुःख की आग में जलना हमसे
नहीं देखा जाता ।
व्रजविलासिनी आवाज सम्हाल कर बोली – बहन, मैं अभागिनी हूँ । मेरा हाल मत सुनो ।
राज0 – अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ ।
व्रज0 – क्या, कहो ?
राज0 – वही जो मैंने पहले दिन पूछा था, तुम्हारा ब्याह हुआ है कि नहीं ?
व्रज0 – इसका जवाब मैं क्या दूँ ? अभी नहीं हुआ ।
राज0 – क्या किसी का प्रेम-बाण हृदय में चुभा हुआ है ?
व्रज0 – नहीं बहन, ईश्वर जानता है ।
राज0 – तो इतनी उदास क्यों रहती हो ? क्या प्रेम का आनन्द उठाने को जी चाहता है ?
व्रज0 – नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम को स्थान ही नहीं ।
राज0 – हम प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी ।
व्रजविलासिनी इशारा समझ गयी और बोली–बहन, इन बातों की चर्चा न करो ।
राज0 – मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगी । दीवान जयचंद को तुमने देखा है ?
व्रजविलासिनी आँखों मे आँसू भर कर बोली – राजकुमारी, मैं व्रतधारिणी हूँ और
अपने व्रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है ।
प्रण को निभाने के लिए मैं जीती हूँ, नहीं तो मैंने ऐसी आफतें झेली हैं कि जीने की
इच्छा अब नहीं रही । मेरे बाप विक्रमनगर के जागीरदार थे । मेरे सिवा उनके कोई
संतान न थी । वे मुझे प्राणों से अधिक प्यार करते थे । मेरे ही लिए उन्होंने बरसों
संस्कृत-साहित्य पढ़ा था । युद्ध-विद्या में वे बड़े निपुण थे और कई बार लड़ाइयों
पर गये थे ।
एक दिन गोधूलि-बेला में जब गायें जंगल से लौट रही थीं मैं अपने द्वार पर खड़ी थी ।
इतने में एक जवान बाँकी पगड़ी बाँधे, हथियार सजाये, झूमता आता दिखायी दिया ।
मेरी प्यारी मोहनी इस समय जंगल से लौटी थी, और उसका बच्चा इधर कलोंले कर
रहा था । संयोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया । गाय उस आदमी पर झपटी ।
राजपूत बड़ा साहसी था । उसने शायद सोचा कि भागता हूँ तो कलंक का टीका लगता है,
तुरंत तलवार म्यान से खींच ली और वह गाय पर झपटा । गाय झल्लायी हुई तो थी, कुछ
भी न डरी । मेरी आँखों के सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला ।
देखते देखते सैकड़ों आदमी जमा हो गये और उसको टेढ़ी-सीधी सुनाने लगे । इतने में
पिता जी भी आ गये । वे संध्या करने गये थे । उन्होंने आ कर देखा कि द्वार पर
सैकड़ों आदमियों की भीड़ लगी है, गाय तड़प रही है और उसका बच्चा खड़ा रो रहा है ।
पिता जी की आहट सुनते ही गाय कराहने लगी और उनकी ओर उसने कुछ ऐसी दृष्टि से
देखा कि उन्हें क्रोध आ गया । मेरे बाद उन्हें वह गाय ही प्यारी थी । वे ललकार कर
बोले–मेरी गाय किसने मारी है ? नवजवान लज्जा से सिर झुकाये सामने आया और बोला
-मैंने ।
पिताजी – तुम क्षत्रिय हो ?
राजपूत – हाँ !
पिताजी – तो किसी क्षत्रिय से हाथ मिलाते ?
राजपूत का चेहरा तमतमा गया । बोला–कोई क्षत्रिय सामने आ जाय । हजारों आदमी खड़े
थे ; पर किसी का साहस न हुआ कि उस राजपूत का सामना करे । यह देख कर पिताजी
ने तलवार खींच ली और वे उस पर टूट पड़े । उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों
में तलवारे चलने लगीं ।
पिताजी बूढ़े थे ; सीने पर जखम गहरा लगा । गिर पड़े । उठा कर लोग घर लाये । उनका
चेहरा पीला था; पर उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं । मैं रोती हुई उनके
सामने आयी । मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया ।
जब मैं और पिता जी अकेले रह गये, तो वे बोले – बेटी, तुम राजपूतानी हो ?
मैं – जी हाँ ।
पिता जी – राजपूत बात के धनी होते हैं ?
मैं – जी हाँ ।
पिता जी – इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली है, इसका बदला तुम्हें लेना होगा ।
मैं – आपकी आज्ञा का पालन करूँगी ।
पिता जी — अगर मेरा बेटा जीता होता तो मैं यह बोझ तुम्हारी गर्दन पर न रखता ।
मैं – आपकी जो आज्ञा होगी, मैं सिर-आखों से पूरी करूँगी ।
पिता जी – तुम प्रतिज्ञा करती हो ?
मैं – जी हाँ ।
पिता जी – इस प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखाओगी ।
मैं – जहाँ तक मेरा वश चलेगा, मैं निश्चय यह प्रतिज्ञा पूरी करूँगी ।
पिता जी — यह मेरी तलवार लो । जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न
भोंक दो, तब तक भोग-विलास न करना ।
यह कहते कहते पिता जी के प्राण निकल गये । मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में
छिपाये उस राजपूत की तलाश में घूमने लगी । वर्षों बीत गये । मैं कभी बस्तियों में
जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानती; पर उस नौजवान का कहीं पता न मिलता ।
एक दिन मैं बैठी हुई अपने फूटे भाग्य पर रो रही थी कि वही नौजवान आदमी आता हुआ
दिखाई दिया । मुझे देखकर उसने पूछा, तू कौन है ? मैंने कहा, मैं दुखिया ब्राह्मणी
हूँ, आप मुझ पर दया कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिए । राजपूत ने कहा,
अच्छा, मेरे साथ आ !
मैं उठ खड़ी हुई । वह आदमी बेसुध था । मैंने बिजली की तरह लपक कर कपड़ों में से
तलवार निकाली और उसके सीने में भोंक दी । इतने में कई आदमी आते दिखायी पड़े ।
मैं तलवार छोड़कर भागी । तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही । बार-बार जी
में आया कि कहीं डूब मरूँ; पर जान बड़ी प्यारी होती है । न जाने क्या-क्या मुसीबतें
और कठिनाइयाँ भोगनी हैं , जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ । अंत में जब जंगल में
रहते रहते जी उकता गया, तो जोधपुर चली आयी । यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी ।
आपकी सेवा में आ पहुँची और तब से आपकी कृपा से मैं आराम से जीवन बिता रही हूँ ।
यही मेरी रामकहानी है ।
राजनंदिनी ने लम्बी साँस ले कर कहा–दुनिया में कैसे-कैसे लोग भरे हुए हैं । खैर,
तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दिया ?
व्रजविलासिनी –कहाँ बहन ! वह बच गया, जखम ओछा पड़ा था । उसी शकल के एक
नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था । नहीं मालूम, वह था या और
कोई, शकल बिलकुल मिलती थी ।

(3)

कई महीने बीत गये । राजकुमारियों ने जब से व्रजविलासिनी की रामकहानी सुनी है, उसके
साथ वे और भी प्रेम और सहानुभूति का बर्ताव करने लगी हैं । पहले बिना संकोच छेड़
छाड़ हो जाती थी; पर अब दोनों हरदम उसका दिल बहलाया करती हैं । एक दिन बादल
घिरे हुए थे, राजनंदिनी ने कहा – आज बिहारीलाल की `सतसई’सुनने को जी चाहता है ।
वर्षाऋतु पर उसमें बहुत अच्छे दोहे हैं ।
दुर्गाकुँवरि – बड़ी अनमोल पुस्तक है । सखी, तुम्हारी बगल में जो अलमारी रखी है,
उसी में वह पुस्तक है, जरा निकालना । व्रजविलासिनी ने पुस्तक उतारी और उसका पहला
पृष्ठ खोला था कि उसके हाथ से पुस्तक छूट कर गिर पड़ी । उसके पहले पृष्ठ पर एक
तस्वीर लगी हुई थी । वह उसी निर्दय युवक की तसवीर थी जो उसके बाप का हत्यारा था ।
व्रजविलासिनी की आँखें लाल हो गयीं । त्योरी पर बलपड़ गये । अपनी प्रतिज्ञा याद आ
गयी; पर उसके साथ ही यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस आदमी का चित्र यहाँ कैसे आया
और इसका इन राजकुमारियों से क्या सम्बन्ध है ?
मुझे इतना कृतज्ञ हो कर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े । राजनंदिनी ने उसकी सूरत देखकर
कहा–सखी क्या बात है ? यह क्रोध क्यों ? व्रजविलासिनी ने सावधानी से कहा – कुछ
नहीं, न जाने क्यों चक्कर आ गया था । आज से व्रजविलासिनी के मन में एक और चिन्ता
उत्पन्न हुई–क्या मुझे राजकुमारियों का कृतज्ञ हो कर अपना प्रण तोड़ना पड़ेगा ?
पूरे सोलह महीने के बाद अफगानिस्तान से पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह लौटे । बादशाह की
सेना को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । बर्फ अधिकता से पड़ने लगी ।
पहाड़ो के दर्रे बर्फ से ढक गये । आने-जाने के रास्ते बंद हो गये । रसद के सामान
कम मिलने लगे । सिपाही भूखों मरने लगे । अब अफगानों ने समय पाकर रात को छापे
मारना शुरू किये । आखिर शहजादे मुहीउद्दीन को हिम्मत हार कर लौटना पड़ा ।
दोनों राजकुमार ज्यों-ज्यों जोधपुर के निकट पहुँचते थे, उत्कंठा से उनके मन उमड़
आते थे । इतने दिनों के वियोग के बाद फिर भेंट होगी । मिलने की तृष्णा बढ़ती
जाती है । रात-दिन मंजिल काटते चले आते हैं, न थकावट मालूम होती है, न माँदगी ।
दोनों घायल हो रहे हैं; पर फिर भी मिलने की खुशी में जखमों की तकलीफ भूले हुए हैं ।
पृथ्वीसिंह दुर्गाकुँवरि के लिए एक अफगानी कटार लाये हैं । धर्मसिंह ने राजनंदिनी
के लिए काश्मीर का एक बहूमूल्य शाल जोड़ा मोल लिया है । दोनों के दिल उमंग से
भरे हुए हैं ।
राजकुमारियों ने जब सुना कि दोनों वीर वापस आते हैं, तो वे फूले अंगों न समायीं ।
श्रृंगार किया जाने लगा, माँगे मोतियों से भरी जाने लगीं, उनके चेहरे खुशी से दमकने
लगे । इतने दिनों के बिछोह के बाद फिर मिलाप होगा, खुशी आँखों से उबली पड़ती है ।
एक दूसरे को छेड़ती हैं और खुश हो कर गले मिलती हैं ।
अगहन का महीना था, बरगद की डालियों में मूँगे के दाने लगे हुए थे । जोधपुर के
किले से सलामियों की घनगरज आवाजें लगीं । सारे नगर में धूम मच गयी कि कुँवर
पृथ्वीसिंह सकुशल अफगानिस्तान से लौट आये । दोनों राजकुमारियाँ थाली में आरती के
सामान लिये दरवाजे पर खड़ी थीं । पृथ्वीसिंह दरबारियों के मुजरे लेते हुये महल में
आये ।
दुर्गाकुँवरि ने आरती उतारी और दोनों एक दूसरे को देख कर खुश हो गये । धर्मसिंह भी
प्रसन्नता से ऐंठते हुए अपने महल में पहुँचे ; पर भीतर पैर रखने न पाये थे कि छींक
हुई और बायीं आँख फड़कने लगी । राजनंदिनी आरती का थाल ले कर लपकीं; पर उसका
पैर फिसल गया और थाल हाथ से छूटकर गिर पड़ा । धर्मसिंह का माथा ठनका और
राजनंदिनी का चेहरा पीला हो गया । यह अशगुन क्यों ?
व्रजविलासिनी ने दोनों राजकुमारों के आने का समाचार सुन कर उन दोनों को देने के
लिए दो अभिनंदन-पत्र बनवा रखे थे । सबेरे जब कुँवर पृथ्वीसिंह संध्या आदि नित्य-
क्रिया से निपट कर बैठे, तो वह उनके सामने आयी और उसने एक सुन्दर कुश की
चँगेली में अभिनन्दन-पत्र रख दिया । पृथ्वीसिंह ने उसे प्रसन्नता से ले लिया ।
कविता यद्यपि उतनी बढ़िया न थी, पर वह नयी और वीरता से भरी हुई थी । वे वीररस
के प्रेमी थे, उसको पढ़ कर बहुत खुश हुए और उन्होंने मोतियों का हार उपहार दिया ।
व्रजविलासिनी यहाँ से छुट्टी पा कर कुँवर धर्मसिंह के पास पहुँची । वे बैठे हुए राज
नंदिनी को लड़ाई की घटनाएँ सुना रहे थे,; पर ज्योंही व्रजविलासिनी की आँख उन पर
पड़ी, वह सन्न होकर पीछे हट गयी । उसको देख कर धर्मसिंह के चेहरे का भी रंग
उड़ गया, होंठ सूख गये और हाथ-पैर सनसनाने लगे । व्रजविलासिनी तो उलटे पाँव लौटी;
पर धर्मसिंह ने चारपाई पर लेट कर दोनों हाथों से मुँह ढँक लिया । राजनंदिनी ने यह
दृश्य देखा और उसका फूल-सा बदन पसीने से तर हो गया । धर्मसिंह सारे दिन पलँग पर
चुपचाप पड़े करवटें बदलते रहे । उनका चेहरा ऐसा कुम्हला गया जैसे वे बरसों के रोगी
हों । राजनंदिनी उनकी सेवा में लगी हुई थी । दिन तो यों कटा, रात को कुँवर साहब
संध्या ही से थकावट का बहाना करके लेट गये । राजनंदिनी हैरान थी कि माजरा क्या है ।
व्रजविलासिनी इन्हीं के खून की प्यासी है ? क्या यह सम्भव है कि मेरा प्यारा, मेरा
मुकुट धर्मसिंह ऐसा कठोर हो ? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । वह यद्यपि चाहती
है कि अपने भावों से उनके मन का बोझ हलका करे, पर नहीं कर सकती ।
अंत को नींद ने उसको अपनी गोद में ले लिया ।

(4)

रात बहुत बीत गयी है । आकाश में अँधेरा छा गया है । सारस की दुःख से भरी बोली
कभी कभी सुनायी दे जाती है और रह रह कर किले के संतरियों की आवाज कान में आ
पड़ती है । राजनंदिनी की आँख एकाएक खुली, तो उसने धर्मसिंह को पलंग पर न पाया ।
चिंता हुई, वह झट उठ कर व्रजविलासिनी के कमरे की ओर चली और दरवाजे पर खड़ी
होकर भीतर की ओर देखने लगी । संदेह पूरा हो गया । क्या देखती है कि व्रजविलासिनी
हाथ में तेगा लिये खड़ी है और धर्मसिंह दोनों हाथ जोड़े उसके सामने दीनों की तरह
घुटने टेके बैठे हैं । वह दृश्य देखते ही राजनंदिनी का खून सूख गया और उसके सिर में
चक्कर आने लगा, पैर लड़खड़ाने लगे । जान पड़ता था कि गिरी जाती है । वह अपने कमरे
में आयी और मुँह ढँक कर लेट रही, पर उसकी आँखों से एक बूँद भी न निकली ।
दूसरे दिन पृथ्वीसिंह बहुत सबेरे ही कुँवर धर्मसिंह के पास गये और मुस्करा कर बोले-
भैया, मौसम बड़ा सुहावना है, शिकार खेलने चलते हो ?
धर्मसिंह – हाँ चलो ।
दोनों राजकुमारों ने घोड़े कसवाये और जंगल की ओर चल दिये । पृथ्वीसिंह का चेहरा
खिला हुआ था, जैसे कमल का फूल । एक एक अंग से तेजी और चुस्ती टपकी पड़ती थी;
पर कुँवर धर्मसिंह का चेहरा मैला हो गया था, मानो बदन में जान ही नहीं है । पृथ्वी
सिंह ने उन्हें कई बार छेड़ा ; पर जब देखा कि वे बहुत दुःखी हैं, तो चुप हो गये ।
चलते चलते दोनों आदमी झील के किनारे पर पहुँचे । एकाएक धर्मसिंह ठीठके और बोले–
मैंने आज रात को एक दृढ़ प्रतिज्ञा की है । यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी आ
गया । पृथ्वीसिंह ने घबरा कर पूछा – कैसी प्रतिज्ञा ?
`तुमने व्रजविलासिनी का हाल सुना है ? मैंने प्रतिज्ञा की है कि जिस आदमी ने उसके
बाप को मारा है, उसे भी जहन्नुम में पहुँचा दूँ ।’
`तुमने सचमुच वीर-प्रतिज्ञा की है ।’
`हाँ,यदि मैं पूरी कर सकूँ । तुम्हारे विचार में ऐसा आदमी मारने योग्य है या नहीं?’
`ऐसे निर्दयी की गर्दन गुट्ठल छुरी से काटनी चाहिए ।’
`बेशक, यही मेरा भी विचार है । यदि मैं किसी कारण यह काम न कर सकूँ, तो तुम
मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे ?’
`बड़ी खुशी से । उसे पहचानते हो न ?’
`हाँ , अच्छी तरह ।’
`तो अच्छा होगा, यह काम मुझको ही करने दो, तुम्हें शायद उस पर दया आ जाय ।’
बहुत अच्छा; पर यह याद रखो कि वह आदमी बड़ा भाग्यशाली है ! कई बार मौत के मुँह
से बच कर निकला है । क्या आश्चर्य है कि तुमको भी उस पर दया आ जाय । इसलिए
तुम प्रतिज्ञा करो कि उसे जरूर जहन्नुम पहुँचाओगे ।’
मैं दुर्गा की शपथ खा कर कहता हूँ कि उस आदमी को अवश्य मारूँगा ।’
`बस, तो हम दोनों मिलकर कार्य सिद्ध कर लेंगे । तुम अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़
रहोगे न ?’
`क्यों ? क्या मैं सिपाही नहीं हूँ ? एक बार जो प्रतिज्ञा की, समझ लो कि वह पूरी
करूँगा, चाहे इसमें अपनी जान ही क्यों न चली जाय ।’
`सब अवस्थाओं में ?’
`हाँ, सब अवस्थाओं में ।’
`यदि वह तुम्हारा कोई बंधु हो तो ?’
पृथ्वीसिंह ने धर्मसिंह को विचारपूर्वक देख कर कहा–कोई बंधु हो तो ?
धर्मसिंह – हाँ, सम्भव है कि तुम्हारा कोई नातेदार हो ।
पृथ्वीसिंह – (जोश में) कोई हो, यदि मेरा भाई भी हो, तो भी जीता चुनवा दूँ ।
धर्मसिंह घोड़े से उतर पड़े । उनका चेहरा उतरा हुआ था और ओठ काँप रहे थे ।
उन्होंने कमर से तेगा खोल कर जमीन पर रख दिया और पृथ्वीसिंह को ललकार कहा–
पृथ्वीसिंह, तैयार हो जाओ । वह दुष्ट मिल गया । पृथ्वीसिंह ने चौंक कर इधर-उधर
देखा तो धर्मसिंह के सिवाय और कोई दिखायी न दिया ।
धर्मसिंह – तेगा खींचो ।
पृथ्वीसिंह – मैंने उसे नहीं देखा ।
धर्मसिंह – वह तुम्हारे सामने खड़ा है । वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिंह ही है ।
पृथ्वीसिंह -(घबराकर) ऐं तुम ! -मैं–
धर्मसिंह – राजपूत, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो ।
इतना सुनते ही पृथ्वीसिंह ने बिजली की तरह कमर से तेगा खींच लिया और उसे धर्मसिंह
के सीने में चुभा दिया । मूठ तक तेगा चुभ गया । खून का फव्वारा बह निकला । धर्मसिंह
जमीन पर गिर कर धीरे से बोले–पृथ्वीसिंह,मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ । तुम सच्चे
वीर हो । तुमने पुरुष का कर्तव्य पुरुष की भाँति पालन किया ।
पृथ्वीसिंह यह सुन कर जमीन पर बैठ गये और रोने लगे ।

(5)

अब राजनंदिनी सती होने जा रही है । उसने सोलहों श्रृंगार किये हैं और माँग मोतियों
से भरवायी है । कलाई में सोहाग का कंगन है, पैरों में महावर लगायी है और लाल
चुनरी ओढ़ी है । उसके अंग से सुगंधि उड़ रही है, क्योंकि वह आज सती होने जाती है ।
राजनंदिनी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान है । उसकी ओर देखने से आँखों में
चकाचौंध लग जाती है । प्रेम-मद से उसका रोयाँ-रोयाँ मस्त हो गया है उसकी आँखों
से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है । वह आज स्वर्ग की देवी जान पड़ती है । उसकी
चाल बड़ी मदमाती है । वह अपने प्यारे पति का सिर अपनी गोद में लेती है और उस
चिता में बैठ जाती है जो चंदन, खस आदि से बनायी गयी है ।
सारे नगर के लोग यह दृश्य देखने के लिए उमड़े चले आते हैं । बाजे बज रहे हैं,
फूलों की वृष्टि हो रही है । सती चिता पर बैठ चुकी थी कि इतने में कुँवर पृथ्वीसिंह
आये और हाथ जोड़ कर बोले –महारानी, मेरा अपराध क्षमा करो ।
सती ने उत्तर दिया – क्षमा नहीं हो सकता । तुमने एक नौजवान राजपूत की जान ली है,
तुम भी जवानी में मारे जाओगे ।
सती के वचन कभी झूठे हुए हैं ? एकाएक चिता में आग लग गयी । जयजयकार के शब्द
गूँजने लगे । सती का मुख आग में यों चमकता था, जैसे सबेरे की ललाई में सूर्य चमकता
है । थोड़ी देर में वहाँ राख के ढ़ेर के सिवा और कुछ न रहा ।
इस सती के मन में कैसा सत था ! परसों जब उसने व्रजविलासिनी को झिझक कर धर्मसिंह के
सामने जाते देखा था, उसी समय से उसके दिल में संदेह हो गया था । पर जब रात को उसने
देखा कि मेरा पति इसी स्त्री के सामने दुखिया की तरह बैठा हुआ है, तब वह संदेह
निश्चय की सीमा तक पहुँच गया और यही निश्चय अपने साथ सत लेता आया था ।
सवेरे जब धर्मसिंह उठे तब राजनंदिनी ने कहा था कि मैं व्रजविलासिनी के शत्रु का सिर
चाहती हूँ, तुम्हें लाना होगा । और ऐसा ही हुआ । अपने सती होने के सब कारण राज
नंदिनी ने जान-बूझ कर पैदा किये थे, क्योंकि उसके मन में सत था । पाप की आग कैसी
तेज होती है ? एक पाप ने कितनी जानें लीं ? राजवंश के दो राजकुमार और दो कुमारियाँ
देखते देखते इस अग्निकुंड में स्वाहा हो गयीं । सती का वचन सच हुआ । साथ ही सप्ताह
के भीतर पृथ्वीसिंह दिल्ली में कत्ल किये गये और दुर्गाकुमारी सती हो गयी ।

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