मानसरोवर भाग 3

ज्योति

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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विधवा हो जाने के बाद बूटी का स्वभाव बहुत कटु हो गया था । जब बहुत जी जलता तो
अपने मृत पति को कोसती–आप तो सिधार गये, मेरे लिये यह सारा जञ्जाल छोड़ गये ! जब
इतनी जल्दी जाना था, तो ब्याह न जाने किस लिए किया । घर में भूनी भाँग नहीं, चले थे
ब्याह करने । वह चाहती तो दूसरी सगाई कर लेती । अहीरों में इसका रिवाज है । देखने-
सुनने में भी बुरी न थी । दो एक आदमी तैयार भी थे; लेकिन बूटी पतिव्रता कहलाने के
मोह को न छोड़ सकी । और यह सारा क्रोध उतरता था, बड़े लड़के मोहन पर ! जो सोलह
साल का था । सोहन अभी छोटा था और मैना लड़की थी । ये दोनों अभी किसी लायक न थे ।
अगर यह तीनों न होते, तो बूटी को क्यों इतना कष्ट होता । जिसका थोड़ा-सा काम कर
देती; वह रोटी कपड़ा दे देता । जब चाहती किसी के सिर बैठ जाती । अब अगर कहीं बैठ
जाय, तो लोग यही कहेंगे कि तीन-तीन लड़कों के होते इसे यह क्या सूझी । मोहन भरसक
उसका भार हल्का करने की चेष्टा करता । गायों, भैसों की सानी-पानी, दुहना-मथन यह सब
कर लेता, लेकिन बूटी का मुँह सीधा न होता था । वह रोज एक-न-एक खुचड़ निकालती रहती
और मोहन ने भी उसकी घुड़कियों की परवाह करना छोड़ दिया था । पति उसके सिर गृहस्थी
का यह भार पटककर क्यों चला गया । उसे यही गिला थी । बेचारी का सर्वनाश ही कर दिया !
न खाने का सुख मिला, न पहनने-ओढ़ने का, न और किसी बात का । इस घर में क्या आयी,
मानो भट्ठी में पड़ गयी ! उसकी वैधव्य साधना और अतृप्त भोग-लालसा में सदैव द्वन्द्व
सा मचा रहता था और उसकी जलन में उसके हृदय की सारी मृदुता जलकर भस्म हो गयी थी ।
पति के पीछे और कुछ नहीं तो बूटी के पास चार-पाँच सौ के गहने थे, लेकिन एक-एक करके
सब उसके हाथ से निकल गये । उसी मुहल्ले में, उसके बिरादरी में, कितनी औरतें थीं, जो
उससे जेठ होने पर भी गहने झमकाकर, आँखों में काजल लगाकर, माँग में सेंदुर की मोटी
सी रेखा डालकर मानो उसे जलाया करती थीं ,
इसलिए जब उनमें से कोई विधवा हो जाती, तो बूटी को खुशी होती और यह सारी जलन वह
लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर । वह शायद सारे संसार की स्त्रियों को अपने ही
रूप में देखना चाहती थी । कुत्सा में उसे विशेष आनन्द मिलता था । उसकी वंचित लालसा
जल न पाकर ओस चाट लेने में ही संतुष्ट होती थी; फिर यह कैसे सम्भव था कि वह मोहन के
विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले । ज्योंही मोहन सन्ध्या समय दूध बेचकर घर आया,
बूटी ने कहा–देखती हूँ, तू अब साँड बनने पर उतारू हो गया है ।
मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा – कैसा साँड़ ! क्या बात है ?
`तू रुपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता ? उस पर कहता है कैसा साँड ? तुझे लाज
नहीं आती ! घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये जाते हैं, कपड़े
रँगाये जाते हैं ।’
मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया – अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान माँगे तो क्या
करता ? कहता कि पैसे दो तो लाऊँगा । अपनी धोती रँगने को दी, तो उससे रँगाई माँगता ?
`टोले में एक तू ही बड़ा धन्नासेठ है ? और किसी से उसने क्यों न कहा ?’
`यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ।’
`तुझे अब छैला बनने की सूझती है ! घर में भी कभी एक पैसे का पान लाया ?’
`यहाँ पान किसके लिए लाता ?’
`क्या तेरे लेखे घर में सब मर गये ?’
मैंने न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो ?’
`संसार में एक रुपिया ही पान खाने जोग है ?’
`शौक-सिंगार की भी तो उमिर होती है ।’
बूटी जल उठी । उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था । बुढ़ापे
में उन साधनाओं का महत्त्व ही क्या । जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह सब स्त्रियों
के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कठोराघात ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने
अपनी जवानी धूल में मिला दी ! उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए । तब उसकी
चढ़ती जवानी थी ।
तीन लड़के भगवान ने उसके गले मढ़ दिये, नहीं अभी वह है कै दिन की । चाहती तो आज
वह भी ओंठ लाल किये, पाँव में महावर लगाये, अनवट-बिछुये पहने मटकती फिरती । यह सब
कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है ? रुपिया
उसके सामने खड़ी करदी जाय, तो चुहिया-सी लगे । फिर भी वह जवान है, और बूटी बुढ़िया
है !
बोली – हाँ और क्या । मेरे लिए तो अब फटे-चिथड़े पहनने के दिन हैं । जब तेरा बाप
मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बढ़ी थी । उस वक्त कोई घर लेती, तो तुम लोगों
का कहीं पता न लगता । गली-गली भीख माँगते फिरते । लेकिन मैं कहे देती हूँ । अगर तू
फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी ।
मोहन ने डरते-डरते कहा–मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्माँ ।
`कैसी बात ।’
`सगाई की ।’
`अगर रुपिया मेरे घर में आई तो झाड़ू मार कर निकाल दूँगी । यह सब उसकी माँ की माया
है । वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है । राँड़ से इतना भी नहीं देखा
जाता । चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दें ।’
मोहन ने व्यथित कण्ठ से कहा – अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो । क्यों अपना पानी आप
खो रही हो । मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जायगी; तुम अकेली पड़
जाओगी; इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था । अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो ।
`तू आज से यहीं आँगन में सोया कर ।’
`और गायें-भैंसे बाहर पड़ी रहेंगी ?’
`पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता ।’
`मुझ पर तुझे इतना सन्देह है ?’
`हाँ।’
`तो मैं यहाँ न सोऊँगा ।’
`तो निकल जा मेरे घर से ।’
`हाँ, तेरी यही इच्छा है तो निकल जाऊँगा ।’
मैना ने भोजन पकाया । मोहन ने कहा, मुझे भूख नहीं है ! बूटी उसे मनाने न आई । मोहन
का युवक-हृदय माता के इस कठोर शासन को किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकता । उसका घर है,
ले, ले । अपने लिए वह कोई दूसरा ठिकाना ढूँढ़ निकालेगा ।
रुपिया ने उसके रूखे जीवन में एक स्निग्धता भर दी थी । जब वह एक अव्यक्त कामना से
चंचल हो रहा था, जीवन कुछ सूना-सूना लगता था, रुपिया ने नव-वसन्त की भाँति आकर उसे
पल्लवित कर दिया । मोहन को जीवन में एक मीठा स्वाद मिलने लगा । कोई काम करता होता;
पर ध्यान रुपिया की ओर लगा रहता । सोचता; उसे क्या दे दे कि वह प्रसन्न हो जाय ! अब
वह कौन मुँह लेकर उसके पास जाय ? क्या उससे कहे कि अम्माँ ने मुझे तुझसे मिलने को
मना किया है ? अभी कल ही तो बरगद के नीचे दोनों में कैसी-कैसी बाते हुई थीं । मोहन
ने कहा था, रूपा तुम इतनी सुन्दर हो; तुम्हारे सौ गाहक निकल जायेंगे । मेरे घर में
तुम्हारे लिए क्या रक्खा है ? इस पर रुपिया ने जो जवाब दिया था, वह तो संगीत की तरह
अब भी उसके प्राणों में बसा हुआ था – मैं तो तुमको चाहती हूँ मोहन, अकेले तुमको ।
परगने के चौधरी हो जाव, तब भी मोहन हो; मजूरी करने लगो, तब भी मोहन हो । उसी
रुपिया से आज वह जाकर कहे–अब तुमसे कोई सरोकार नहीं है ।
नहीं, यह नहीं हो सकता । उसे घर की परवाह नहीं हैं । वह रुपिया के साथ माँ से अलग
रहेगा । इस जगह न सही, किसी दूसरे मोहल्ले में सही । इस वक्त भी रुपिया उसकी राह
देख रही होगी । कैसे अच्छे बीड़े लगाती है । कहीं अम्माँ सुन पावें कि यह रात को
रुपिया के द्वार पर गया था तो परान ही दे दें । दे दें परान ! अपने भाग तो नहीं बखा
नती कि ऐसी देवी बहू मिली जाती है । न जाने क्यों रुपिया से इतना चिढ़ती है । वह
जरा पान खा लेती है, जरा साड़ी रँगकर पहनती है । बस यही तो ।
चूड़ियों की झनकार सुनाई दी । रुपिया आ रही है । हाँ, वही है ।
रुपिया उसके सिरहाने आकर बोली – सो गये क्या मोहन ? घड़ी भर से तुम्हारी राह देख
रही हूँ । आये क्यों नहीं ?
मोहन नींद का मक्कर किये पड़ा रहा ।
रुपिया ने उसका सिर हिलाकर फिर कहा – क्या सो गये मोहन ?
उन कोमल उँगलियों के स्पर्श में क्या सिद्धि थी, कौन जाने । मोहन की सारी आत्मा
उन्मत्त हो उठी । उसके प्राण मानो बाहर निकलकर रुपिया के चरणों में समर्पित हो जाने
के लिए उछल पड़े । देवी वरदान लिए सामने खड़ी है । सारा विश्व जैसे नाच रहा है ।
उसे उसका शरीर लुप्त हो गया है, केवल वह मधुर स्वर की भाँति विश्व की गोद से चिमटा
हुआ उसके साथ नृत्य कर रहा है ।
रुपिया ने फिर कहा–अभी से सो गये क्या जी ?
मोहन बोला–हाँ जरा नींद आ गई थी रूपा । तुम इस वक्त क्या करने आईं । कहीं अम्माँ
देख लें, तो मुझे मार ही डालें ।
`तुम आज आये क्यों नहीं ?’
`आज अम्माँ से लड़ाई हो गई ।’
`क्या कहती थीं ?’
`कहती थीं, रुपिया से बोलेगा तो मैं परान दे दूँगी ।’
`तुमने पूछा नहीं, रुपिया से क्या चिढ़ती हो ?’
`अब उनकी बात क्या कहूँ रूपा । वह किसी का खाना-पहनना नहीं देख सकतीं । अब मुझे
तुमसे दूर रहना पड़ेगा ।’
`मेरा जी तो न मानेगा ।’
`ऐसी बात करोगी, तो मैं तुम्हें लेकर भाग जाऊँगा ।’
`तुम मेरे पास एकबार रोज आ जाया करो । बस, और मैं कुछ नहीं चाहती ।’
`और अम्माँ जो बिगड़ेगी ।’
`तो मैं समझ गई । तुम मुझे प्यार नहीं करते ।’
`मेरा बस होता तो तुमको अपने परान में रख लेता ।’
इसी समय घर के किवाड़ खटके । रुपिया भाग गई ।

(2)

मोहन दूसरे दिन सोकर उठा तो उसके हृदय में आनन्द का सागर-सा भरा हुआ था । वह
सोहन को बराबर डाँटता रहता था । सोहन आलसी था । घर के काम-धंधे में जी न लगाता था ।
आज भी वह आँगन में बैठा अपनी धोती में साबुन लगा रहा था । मोहन को देखते ही वह
साबुन छिपाकर भाग जाने का अवसर खोजने लगा ।
मोहन ने मुस्कराकर कहा–क्या धोती बहुत मैली हो गयी है सोहन ? धोबी को क्यों नहीं
देते ?
सोहन को इन शब्दों में स्नेह की गन्ध आई ।
धोबिन पैसे माँगती है ।’
`तो पैसे अम्माँ से क्यों नहीं माँग लेते ?’
`अम्माँ कौन पैसे दिये देती है ।’
`तो मुझसे ले लो !’
यह कहकर उसने एक इकन्नी उसकी ओर फेंक दी । सोहन प्रसन्न हो गया । भाई और माता दोनों
ही उसे धिक्कारते थे । बहुत दिनों बाद आज उसे स्नेह की मधुरता का स्वाद मिला ।
इकन्नी उठा ली और धोती को वहीं छोड़कर गाय को खोलकर ले चला ।
मोहन ने कहा – तुम रहने दो, मैं इसे लिए जाता हूँ ।
सोहन ने पगहिया भाई को देकर फिर पूछा – तुम्हारे लिए चिलम रख लाऊँ ?
जीवन में आज पहली बार सोहन ने भाई के प्रति ऐसा सद्भाव प्रकट किया । इसमें क्या
रहस्य है, यह मोहन की समझ में न आया । बोला–आग हो तो रख लाओ ।
मैना सिर के बाल खोले आँगन में घरौंदा बना रही थी । मोहन को देखते ही उसने घरौंदा
बिगाड़ दिया और अंचल से बाल छिपाकर रसोईघर में बरतन उठाने चली ।
मोहन ने पूछा – क्या खेल रही थी मैना ?
मैना डरी हुई बोली – कुछ तो नहीं ।
`तू तो बहुत अच्छे घरौंदे बनाती है । जरा बना, देखूँ ।’
मैना का रुँआसा चेहरा खिल उठा । प्रेम के शब्द में कितना जादू है । मुँह से निकलते
ही जैसे सुगन्ध फैल गयी । जिसने सुना उसका हृदय खिल उठा ।
जहाँ भय था, वहाँ विश्वास चमक उठा । जहाँ कटुता थी, वहाँ अपनापा छलक पड़ा । चारों
ओर चेतनता दौड़ गई । कहीं आलस्य नहीं, कहीं खिन्नता नहीं । मोहन का हृदय आज प्रेम
से भरा हुआ है । उसमें सुगन्ध का विकर्षण हो रहा है ।
मैना घरौंदा बनाने बैठ गई ।
मोहन ने उसके उलझे हुए बालों को सुलझाते हुए कहा – तेरी गुड़िया का ब्याह कब होगा
मैना, नेवता दे, कुछ मिठाई खाने को मिले ।
मैना का मन आकाश में उड़ने लगा । अब भैया पानी माँगे, तो वह लोटे को राख से खूब चमा
चम करके पानी ले जायगी ।
`अम्माँ पैसे नहीं देती । गुड्डा तो ठीक हो गया है । टीका कैसे भेजूँ ।’
`कितने पैसे लेगी ?’
`एक पैसे के बतासे लूँगी और एक पैसे का रंग । जोड़े तो रंगे जायँगे कि नहीं ।’
`तो दो पैसे में तेरा काम चल जायगा ?’
`तो दो पैसे दे दो भैया, तो तेरी गुड़िया का ब्याह धूमधाम से हो जाय ।’
मोहन ने पैसे हाथ में लेकर मैना को दिखाये । मैना लपकी, मोहन ने हाथ ऊपर उठाया,
मैना ने हाथ पकड़कर नीचे खींचना शुरू किया । मोहन ने उसे गोद में उठा लिया । मैना
ने पैसे ले लिये और नीचे उतरकर नाचने लगी । फिर अपनी सहेलियों को विवाह का नेवता
देने के लिए भागी ।
उसी वक्त बूटी गोबर का झौवा लिये आ पहुँची । सोहन को खड़े देखकर कठोर स्वर में बोली
-अभी तक मटरगस्ती ही हो रही है । भैंस कब दुही जायगी ?
आज बूटी को मोहन ने विद्रोह-भरा जवाब न दिया । जैसे उसके मन में माधुर्य का कोई
सोता-सा खुल गया हो । माता को गोबर का बोझ लिये देखकर उसने झौवा उसके सिर से उतार
लिया ।
बूटी ने कहा–रहने दे,रहने दे, जाकर भैंस दुह, मैं तो गोबर लिये जाती हूँ ।
`तुम इतना भारी बोझ क्यों उठा लेती हो, मुझे क्यों नहीं बुला लेतीं ?’
माता का हृदय वात्सल्य से गद्गद हो उठा ।
`तू जा अपना काम देख । मेरे पीछे क्यों पड़ता है ?’
`गोबर निकालने का काम मेरा है ।’
`और दूध कौन दुहेगा ?’
`वह भी मैं करूँगा ।’
`तू इतना बड़ा जोधा है कि सारे काम कर लेगा !’
`जितना कहता हूँ कर लूँगा ।’
`तो मैं क्या करूँगी ?’
`तुम लड़कों से काम लो; जो तुम्हारा धर्म है ।’
`मेरी सुनता है कोई ?’

(3)

आज मोहन बाजार से दूध पहुँचाकर लौटा, दो पान, कत्था, सुपारी, एक छोटा-सा पानदान और
थोड़ी-सी मिठाई लाया । बूटी बिगड़कर बोली–आज पैसे कहीं फालतू मिल गये थे क्या ? इस
तरह उड़ावेगा तो कै दिन निबाह होगा ?
मैंने तो एक पैसा भी नहीं उड़ाया अम्माँ । पहले मैं समझता था, तुम पान खाती ही
नहीं ।’ `तो अब मैं पान खाऊँगी !’
`हाँ और क्या । जिसके दो-दो जवान बेटे हों, क्या वह इतना शौक भी न करे ।’
बूटी के सूखे कठोर हृदय में कहीं से कुछ हरियाली निकल आयी, एक नन्हीं-सी कोपल थी ;
लेकिन उसके अन्दर कितना जीवन ,कितना रस था । उसने मैना और सोहन को एक-एक
मिठाई दे दी और एक मोहन को देने लगी ।
`मिठाई तो लड़कों के लिए लाया था अम्माँ ।’
`और तू बुढ़ा हो गया, क्यों ?’
`इन लड़कों के सामने तो बूढ़ा ही हूँ ।’
`लेकिन मेरे सामने तो लड़का ही है ।’
मोहन ने मिठाई ले ली । मैना ने मिठाई पाते ही गप से मुँह में डाल ली थी । वह केवल
मिठास का स्वाद जीभ पर छोड़कर कब की गायब हो चुकी थी । मोहन की मिठाई को ललचाई
आँखों से देखने लगी । मोहन ने आधा लड्डू तोड़ कर मैना को दे दिया । एक मिठाई दोने
में और बची थी । बूटी ने उसे मोहन की तरफ बढ़ाकर कहा–लाया भी तो इतनी-सी मिठाई ।
यह ले ले ।
मोहन ने आधी मिठाई मुँह में डालकर कहा–वह तुम्हारा हिस्सा है, अम्माँ ।
`तुम्हें खाते देखकर मुझे जो आनन्द मिलता है, उसमें मिठास से ज्यादा स्वाद है ।’
उसने आधी मिठाई सोहन को और आधी मोहन को दे दी; फिर पानदान खोलकर देखने लगी ।
आज जीवन में पहली बार उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
धन्य भाग कि पति के राज में जिस विभूति के लिए तरसती रही, वह लड़के के राज में
मिली । पानदान में कइ कुल्हियाँ हैं । और देखो, दो छोटी-छोटी चिमचियाँ भी हैं, ऊपर
कड़ा लगा हुआ है । जहाँ चाहो लटकाकर ले जाव । ऊपर की तश्तरी में पान रखे जायेंगे ।
ज्योंही मोहन बाहर चला गया, उसने पानदान को माँज-धोकर उसमें चूना-कत्था भरा, सुपारी
काटी, पान को भिगो कर तश्तरी में रखा । तब एक बीड़ा लगाकर खाया । उस बीड़े के रस ने
जैसे उसके वैधव्य की कटुता को स्निग्ध कर दिया । मन की प्रसन्नता, व्यवहार में
उदारता बन जाती है । अब वह घर में नहीं बैठ सकती । उसका मन इतना गहरा नहीं है कि
इतनी बड़ी विभूति उसमें जाकर गुम हो जाय । एक पुराना आईना पड़ा हुआ था । उसने उसमें
अपना मुँह देखा । ओठों पर लाली तो नहीं है । मुँह लाल करने के लिए उसने थोड़े ही
पान खाया है ।
धनिया ने आकर कहा–काकी, तनक रस्सी दे दो , मेरी रस्सी टूट गई है ।
कल बूटी ने साफ कह दिया होता, मेरी रस्सी गाँव भर के लिए नहीं है । रस्सी टूट गई है
तो बनवा लो । आज उसने धनिया को रस्सी निकालकर प्रसन्न मुख से दे दी और सद्भाव से
पूछा–लड़के के दस्त बन्द हुए कि नहीं धनिया ?
धनिया ने उदास मन से कहा–नहीं काकी, आज तो दिन भर दस्त आये । जाने दाँत आ रहे है ।
`पानी भर ले तो चल देखूँ, दाँत ही है कि और कुछ फसाद है । किसी की नजर-वजर तो नहीं
लगी ?’
`अब क्या जाने काकी, कौन जाने किसी की आँख फूटी हो ।’
`चोंचाल लड़कों को नजर का बड़ा डर रहता है ।’
`जिसने चुमकारकर बुलाया, झट उसकी गोद में चला जाता है । ऐसा हँसता है कि तुमसे क्या
कहूँ ।’
`कभी-कभी माँ की नजर भी लग जाया करती है ।’
`ऐ नौज काकी, भला कोई अपने लड़के को नजर लगायेगा !’
`यही तो तू समझती नहीं । नजर आप-ही आप लग जाती है ।’
धनिया पानी लेकर आई तो बूटी उसके साथ बच्चे को देखने चली ।
`तू अकेली है ! आजकल घर के काम-धंधे में बड़ा अंडस होता होगा ।’
`नहीं अम्माँ, रुपिया आ जाती है, घर का कुछ काम कर देती है, नहीं अकेले तो मेरी
मरन हो जाती ।’
बूटी को आश्चर्य हुआ । रुपिया को उसने केवल तितली समझ रक्खा था ।
`रुपिया !’
`हाँ काकी, बेचारी बड़ी सीधी है । झाड़ू लगा देती है, चौका बरतन कर देती है, लड़के
को सँभालती है । गाढ़े समय कौन किसी की बात पूछता है काकी !’
`उसे तो अपने मिस्सी-काजल से छुट्टी नहीं मिलती होगी !’
`यह तो अपनी-अपनी रुचि है काकी । मुझे तो इस मिस्सी-काजल वाली ने जितना सहारा
दिया, उतना किसी भक्तिन ने न दिया । बेचारी रात भर जागती रही । मैंने कुछ दे तो
नहीं दिया । हाँ, जब तक जीऊँगी उसका जस गाऊँगी ।’
`तू उसके गुन अभी नहीं जानती धनिया । पान के लिए पैसे कहाँ से आते हैं ? किनारदार
साड़ियाँ कहाँ से आती हैं ?
` मैं इन बातों में नहीं पड़ती काकी । फिर शौक-सिंगार करने को किसका जी नहीं
चाहता । खाने-पहनने की यही तो उमिर है ।’
धनिया का घर आ गया । आँगन में रुपिया बच्चे को गोद में लिये थपक रही थी ।
बच्चा सो गया था ।
धनिया ने खटोले पर सुला दिया । बूटी ने बच्चे के सिर पर हाथ रक्खा । रुपिया बेनिया
लाकर उसे झलने लगी ।
बूटी ने कहा–ला बेनिया मुझे दे दे ।
`मैं डूला दूँगी तो क्या छोटी हो जाऊँगी ।’
`तू दिन भर यहाँ काम-धंधा करती रही है । थक गई होगी ।’
तुम इतनी भलीमानस हो, और यहाँ लोग कहते थे कि वह बिना गाली के बात नहीं करती ।
मारे डर के तुम्हारे पास न आयी ।’
बूटी मुस्कराई ।
`लोग झूठ तो नहीं कहते ।’
`मैं आँखों की देखी मानूँ कि कानों की सुनी ?’
आज भी रुपिया आँखों में काजल लगाये, पान खाये, रंगीन साड़ी पहने हुए थी; किन्तु आज
बूटी को मालूम हुआ, इस फूल में केवल रंग नहीं, सुगन्ध भी है । उसके मन में रुपिया
से जो घृणा हो गई थी, वह किसी दैवी-मन्त्र से धुल-सी गई । कितनी सुशील लड़की है,
कितनी लज्जाधुर । बोली कितनी मीठी है । आजकल की लड़कियाँ अपने बच्चों की तो
परवाह नहीं करतीं, दूसरों के लिए कौन मरता है । सारी रात धनिया के लड़के को लिये
जागती रही ! मोहन ने कल की बातें इससे कह तो दी होंगी । दूसरी लड़की होती तो मेरी
ओर से मुँह फेर लेती , मुझे जलाती, मुझसे ऐंठती । इसे तो जैसे कुछ मालूम ही न हो ।
हो सकता है कि मोहन ने इससे कुछ कहा ही न हो । हाँ यही बात है ।
आज रुपिया बूटी को बड़ी सुन्दर लगी । ठीक तो है, अभी शौक-सिंगार न करेगी तो कब
करेगी । शौक-सिंगार इसलिए बुरा लगता है कि ऐसे आदमी अपने भोग-विलास में मस्त रहते
हैं । किसी के घर में आग लग जाय, उनसे मतलब नहीं । उनका काम तो खाली दूसरों को
रिझाना है । जैसे अपने रूप की दूकान सजाए, राह-चलतों को बुलाते हों कि जरा इस दूकान
की सैर भी करते जाइए । ऐसे उपकारी प्राणियों का सिंगार बुरा नहीं लगता नहीं, बल्कि
और अच्छा लगता है ।
इससे मालूम होता है कि इसका रूप जितना सुन्दर है, उतना ही मन भी सुन्दर है; फिर कौन
नहीं चाहता कि लोग उसके रूप का बखान करें । किसे दूसरों की आँखों में खुब जाने की
लालसा नहीं होती ? बूटी का योवन कब का विदा हो चुका; फिर भी यह लालसा उसे बनी हुई
है । कोई उसे रस-भरी आँखों से देख लेता है, तो उसका मन कितना प्रसन्न हो जाता है ।
जमीन पर पाँव नहीं पड़ते; फिर रूपा तो अभी जवान है ।
उस दिन से रूपा प्रायः दो-एक बार नित्य बूटी के घर आती । बूटी ने मोहन से आग्रह कर
उसके लिए एक अच्छी-सी साड़ी मँगवा दी । अगर रूपा कभी बिना काजल लगाये या बेरंगी
साड़ी पहने आ जाती, तो बूटी कहती–बहू-बेटियों का यह जोगिया भेस अच्छा नहीं लगता
है । यह भेस तो हम-जैसी बुढ़ियों के लिए है ।
रूपा ने एक दिन कहा–तुम बूढ़ी काहे से हो गयीं अम्माँ ! लोगों को इशारा मिल जाय,
तो भौंरों की तरह तुम्हारे ऊपर मँडराने लगें । मेरे दादा तो तुम्हारे द्वार पर धरना
देने लगें ।
बूटी ने तिरस्कार से कहा–चल, मै तेरी माँ की सौत बनकर जाऊँगी ।
`अम्माँ तो बूढ़ी हो गयीं !
`तो क्या तेरे दादा अभी जवान बैठे हैं ?’
`हा ऐया, बड़ी अच्छी मिट्टी है उनकी ।’
बूटी ने उसकी ओर रस-भरी आँखों से देखकर पूछा – अच्छा बता, मोहन से तेरा ब्याह कर
दूँ ?
रूपा लजा गयी । मुख पर गुलाब की आभा दौड़ गयी ।
आज मोहन दूध बेचकर लौटा तो बूटी ने कहा – कुछ रुपये-पैसे जुटा मैं रूपा से तेरी बात
चीत कर रही हूँ ।

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