दस महाव्रत

श्रीहरि: दस महाव्रत

– कल्याण से साभार

अहिंसा ……….

अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः— (योगदर्शन 2.35)

‘इन हिंसकों का पालन अच्छा नहीं! ‘बगल में बैठे केशरीशावक की ओर संकेत करके किशोर ने माधवराव से कहा। ये किसीके होते नहीं। पता नहीं इन्हें कब क्रोध आ जाय। कम-से-कम इस प्रकार स्वतंत्र तो नहीं ही रखना चाहिए।’ ‘ओह यह भोला शिशु’ माधवराव ने उस सिंहशिशु के मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहा। ‘इसे क्या बाँधकर रक्खा जा सकता है? तुम देखते नहीं कि यह मुझे कितना चाहता है। कुत्ते के समान मेरे पीछे लगा फिरता है।’ ‘फिर भी….’किशोर ने रोका; परंतु माधवराव बिना रुके बोलते गये। ‘फिर भी यह हिंसक है और धोखा दे सकता है, तुम यही तो कहना चाहते हो? सच पूछो तो मैंने इसे इसीलिए पाला भी है। इसकी सहोदरा मेरे द्वारा रक्षित न हो सकी। वह बेचारी इसे अकेली छोड़ गयी। अभी एक महीना ही तो हुआ है उसे मरे। और इसकी माँ–इसके देखते -देखते मैंने इसकी माँ का बध किया है। ‘माधवराव के नेत्र टपकने लगे। कण्ठ भर आया। आँसुओं को पोंछकर उन्होंने अपने पालतू सिंह को देखा। वह चुपचाप इनके मुख को इस प्रकार देख रहा था, मानो वह भी इनके कष्ट से रोना चाहता हो। ‘मैं इसकी माता का हत्यारा हूँ। यदि यह मुझसे अपनी माताका बदला ले तो वह न्याय होगा। अपने दुष्कर्म का इस प्रकार प्रतिकार करने का अवसर प्राप्त करने की आशा से ही मैंने इसका पालन किया, किंतु यह अपनी माता के वधिक पर भी विश्वास करता है। देखो न! उलटे मेरे दुःख से पीड़ित होता है। इससे प्रतिकार की भी आशा कहाँ? वृक्षों की आड़ थी; फिर भी घोड़े की टापों के शब्द ने सिंहनी को सावधान कर दिया। अपनी गुफा से वह बाहर आयी और तनकर खड़ी हो गयी। उसके साथ उसके दोनों बच्चे भी निकल आये। यद्यपि सिंहनी ने उन्हें गुफा में ढकेलना चाहा; किंतु बच्चे तो बच्चे ही ठहरे। वे तो परिस्थिति समझते नहीं। इधर-उधर खिसककर वे माँ के पास ही रहना चाहते थे। इधर घोड़े के पैरों का शब्द पास आ गया था और सिंहनी को अवकाश नहीं था बच्चों को गुफा के भीतर लेकर जाने का। उसने उन्हें गुफा के द्वार पर ढकेल दिया और आप कान खड़े करके गुर्राने लगी। बच्चा देने पर तो गाय भी मारने दौड़ती है बच्चे के पास जाने वालों को, फिर सिंहनी तो सिंहनी ही है। बच्चे समीप होने पर वह असह्या हो जाती है। माधवराव -जैसा प्रवीण शिकारी इसे भलीभाँति जानता था। उसे पता था कि यदि प्रथम लक्ष्य में ही वह धराशायी नहिं हो गयी तो शिकारी को स्वयं शिकार बनने में देर न लगेगी। उसके कराल आक्रमण में सावधानी से लक्ष्य लेना सरल नहीं है। भीलों ने ठीक पता बतला दिया था, जहाँ सिंहनी ने गुफा में बच्चे दिये थे। झाड़ियों की सघनता का आश्रय लेते हुए माधवराव का घोड़ा बढ़ा आ रहा था। अन्त में एक झाड़ी के पीछे नन्हें-से मैदान में अपनी ओर मुख किये वह मृगेन्द्रवधू दृष्टि पड़ी। घोड़ा रुक गया। धनुष पर बाण चढ़ चुका था। एक सधा हुआ हाथ छूटा। चीत्कार से जंगल गूँज उठा। सिंहनी तड़पी और गिर गयी। निपुण शिकारी समझ गया कि अब वह उठ नहीं सकती। घोड़े से उतर कर उसे पेड़ की डाल से बाँध दिया और स्वयं सिंहनी की ओर बढ़ा। बाण ठीक मस्तक के मध्य में लगा था। सिंहनी आड़ी पड़ी थी और उसके दोनों बच्चे उसके पास दौड़ आये थे। एक स्तन पी रहा था , दूसरा मुख सूँघ रहा था। शिकारी स्तम्भित हो गया। उसने देखा – मस्तक से बाण के पास से रक्त टपक रहा है। दो भोले शिशु माँ के पास हैं और सिंहनी का वह निष्प्राण शरीर अब भी उसे अपने अग्निनेत्रों से घूर रहा है। ‘हत्यारे इन्हें भी मार! ‘मानों वह कह रही है। दो क्षण वह रुका रहा और तब धनुष फेंककर दौड़ा और सिंहनी के मुख और पंजों के मध्य गिर पड़ा। मानो सिंहनी अभी जीवित है और उसे उसके कृत्य का बदला देगी। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सिंहनी ज्यों-की त्यों उसे घूरती पड़ी रही। अब वह सिंहनी का शव-मात्र था। केवल वे बच्चे इस अपरिचित से डरकर गुफा में भाग गये। अन्ततः माधवराव गम्भीर व्यक्ति थे। वे उठे और उन्होंने सीटी दी। उनके सहचर जो उन्हें ढूँढ ही रहे थे, आ गये। बड़े आदर पूर्वक उन्होंने सिंहनी के शव को श्रीनर्मदाजी में प्रवाहित कर दिया। सिंहचर्म का इस प्रकार व्यर्थ जाना उनके अनुगतों को सह्य नहीं था; किंन्तु वे अपने नायक की कठोर एवं व्याकुल मुद्रा के सम्मुख कुछ भी कहने का साहस न कर सके। वे दोनों बच्चे माधवराव के घर लाये गये। कहना नहीं होगा कि माधवराव ने वह फेंका हुआ धनुष फिर कभी नहीं उठाया। सहसा चौंककर माधवराव ने पीछे देखा। उनका केशरी एक बछड़े को पटक चुका था और वह बछड़ा डकार रहा था। ‘केशरी!’ स्वामी के दृढ़ स्वर एवं कठोर नेत्र को देखकर वह सिंह संकुचित हो गया। अपराधी की भाँति सिर झुकाये वह उनके समीप आकर खड़ा हो गया। बछड़ा उठा और प्राण लेकर भागा। ‘सिंह बिगड़ गया है’- इस भय से पास के खेत का किसान भी हल-बैल छोड़कर भाग चुका था। माधवराव ने एक बार गम्भीर दृष्टि से सिंह को देखा और फिर घर की ओर लौट पड़े। गुरुदेव ने कहा था कि ‘जिसके हृदय में हिंसा नहीं है, उसके समीप पहुँचते ही सभी प्राणी हिंसा भूल जाते हैं। ‘दूसरे प्राणियों की बात तो दूर रही मेरा पालतू केशरी भी अपनी हिंसा नहीं भूल पाता। अभी उस दिन उसने नौकर पर पंजा चलाया था और आज बछड़े को दबा बैठा। जब दूध पिलाकर पालने पर भी वह अपनी हिंसा न छोड़ सका तो दूसरों की क्या चर्चा? तब क्या गुरुदेव ने ठीक नहीं…..ऐसा कैसे हो सकता है? सच तो यह है कि मैंने केवल शिकार छोड़ा है। हाथों से हिंसा छोड़ने पर भी मैं अहिंसक कहाँ हूँ? अभी कल नौकर के द्वारा लालटेन का शीशा टूटने पर जल उठा, परसों बच्चे को मारते-मारते रुका। माधवराव गम्भीरता से सोच रहे थे। ‘यह हाथ में लाठी? कुत्ता, सर्प, पशु आदि आक्रमण करे तो उसका निवारण होगा। सीधे शब्दों में उसे मारूँगा। यह हिंसा नहीं है! उन्होंने लाठी फेंक दी। ‘यह पहरेदार? कोई चोर, डाकू आये तो….’उन्होंने पहरेदार को विदा कर दिया वेतन देकर। इसी प्रकार वे और भी बहुत कुछ करते एवं सोचते रहे। यह क्रम चला कई दिनों तक। उनके पास न तो पहरेदार रहा और न कुत्ता। घर के सब अस्त्र-शस्त्र बाँट दिये गये। यहाँ तक कि तालाकुंजी भी नहीं रक्खा। लोग समझते थे कि माधवराव पागल हो गये हैं। कुछ ऐसे भी लोग थे जो उन पर श्रद्धा भी करने लगे। जो भी हो, माधवराव ने अपनी समस्त सम्पत्ति जो केशरी के नाम करादी वह किसी को अच्छा नहीं लगा। और तब तो सब को और भी बुरा लगा जब केशरी के बीमार होकर मर जाने पर वे बच्चों की भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। अन्ततः उन्होंने उसकी चिकित्सा एवं सेवा में कुछ उठा तो रक्खा नहीं था। फिर एक घातक पशु के लिये इतना व्याकुल होना कहाँ की समझदारी है? लोगों ने समझा कि सिंह क्या मरा; एक विपत्ति टली। अन्यथा उससे सर्वदा खटका लगा ही रहता था। आलोचनाएँ तो होती ही हैं और माधवराव की अधिक हुई, किन्तु वे थे अपनी धुन के पक्के। लोगों की ओर से उन्होंने अपने को वज्रबधिर बना दिया। उनका मकान था ग्राम के एक और। मकान के सम्मुख थोड़ा हटकर उन्होंने केशरी की एक पूरे कद की प्रस्तर-मूर्ति निर्मित कराकर उसे एक पक्के चबूतरे पर स्थापित करा दी। प्रायः संध्याको वे उस मूर्ति के समीप चबुतरे पर बैठे या उस पर हाथ फेरते थे। दो साँढ़ लड़ रहे थे, माधवराव उधरसे निकल गये। दोनों ने लड़ना तो दिया छोड़ और छोटे बछड़ों के समान उछलकर उनके समीप आ गये। उन्होंने दोनों को पुचकारा, उनके सिर एवं शरीर पर हाथ फेरा। ‘आपस में लड़ा नहीं करते! ‘मानो उनके आदेश को पशुओं ने समझ लिया। दोनों परस्पर परिचित के समान खेलने लगे। ‘माधवराव तो संत हो गये! ‘एक देखनेवाले ने कहा- ‘देखो न, साँढ़ भी उनकी आज्ञा मानते हैं!’ दूसरे ने कहा- ‘साँढ़ तो फिर भी सीधे होते हैं, मैंने स्वयं देखा है कि उस सिंह-मूर्ति के चबूतरे पर-से वे एक बिच्छू को हाथ से उठाकर नीचे रख रहे थे। बिच्छू ने डंक मारना तो दूर, शरीर भी नहीं हिलाया! ‘किंतु मैं तो उस दिन घबरा गया जब मैंने देखा कि मेरी छोटी बच्ची उस चबूतरे पर एक काले सर्प को दोनों हाथों से थप-थपा रही है और साँप काटने के बदले फण बचाता फिरता है। इतना ही नहीं वहीं एक भेड़िया भी गुम-सुम बैठा था और रामू की बकरी के बच्चे कभी चबूतरे से उसकी पीठ पर और कभी उसकी पीठ से चबूतरे पर उछल रहे थे।’ सब अपनी-अपनी सुना रहे थे, इतनी देर में पटेल भी आ गये। उन्होंने अपना अनुभव बताया – ‘उस दिन मैं जमादार पर बहुत असंतुष्ट था। कहीं मिलता तो खाल खींच लेता। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसका पता लगा माधवराव के दालान में। मैं आगबबूला हुआ पहुँचा। दालान के पास जाते-न-जाते मेरा क्रोध पानी हो गया। राव को देखते ही मुझे बड़ी लज्जा आयी। तभी से मैंने समझ लिया कि वे अवश्य कोई सिद्ध महात्मा हैं।

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माधवराव का शरीर अब नहीं रहा। उनके प्रस्तर केशरी को लोगों ने सिन्दूर से रंग दिया है और देवी का वाहन समझकर वे उसकी पूजा करते हैं। देखा-देखी मध्यप्रांत एवं बरार के अधिकांश ग्रामों में ग्राम से बाहर पत्थर या मिट्टी की सिंह अथवा व्याग्र मूर्ति बनाकर पूजने की प्रथा चल पड़ी, जो अब तक चल रही है। ग्रामीणों का विश्वास है कि इस प्रकार की पूजा से वनपशु उन्हें तंग नहीं करेंगे। सुना जाता है कि उस सिंहमूर्ति के समीप अब भी कोई प्राणी दूसरे पर अपना क्रोध प्रकट नहीं करता।

1 thought on “दस महाव्रत”

  1. सादर नमस्ते,

    यह पुस्तक मुझे वर्ष १९९८ में मिला था| जो गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा १९६५ के आस पास का छपा हुआ था| कुछ समय पश्चात वो मुझसे खो गया और फिर नहीं मिला|
    प्रथम तीन कहानियाँ मैंने अपने हाथ से उस पुस्तक से लिख कर रख ली थी|
    आज आपकी कृपा से मुझे पुनः वह पुस्तक प्राप्त हुआ है|
    गीता प्रेस इसे अब नहीं छापती|
    आपका अनेकों धन्यवाद्|

    मैं इस पुस्तक की कहानियों का सार यदा कदा लोगों को सुनाता हूँ|

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