दस महाव्रत

सत्य

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् (योगदर्शन 2 .26) ——————-

दिन विदा होने को था। सूर्य भगवान् अस्ताचल पर पहुँच चुके थे। संध्या की लालिमा ने दिशाओं के साथ तरुपल्लवों एवं पृथ्वी को भी अनुरंजित कर दिया था। निर्झर का निर्मल प्रवाह सिन्दूरी हो चुका था। पक्षी कलरव करते नीड़ों को लौट रहे थे। मयूरों की केका से कानन मुखरित हो उठा। गन्तव्य अभी सुदूर था। पथिक श्रान्त हो चुका था और उसके पैर अब सत्याग्रह करने लगे थे। भाल पर पसीने के बड़े-बड़े बिन्दु चमक रहे थे। उसने अञ्जलि भरकर अपने मुख को प्रवाह के जल से धोया और तृषा शान्त की। इसके अनन्तर वह कलियों के भार से झुके हरसिंगार के नीचे की स्वच्छ शिलापर अपने कंधे का कम्बल डालकर उसी पर लेट गया कुछ ही क्षणों में उसकी नासिका से खर्राटे की आवाज निकलने लगी। शरद् की वही शुभ्र पूर्णिमा थी, जिसमें कभी लीलाधर के अधरों से लगी वंशी ने त्रिभुवन को सुधा-स्नात किया था। धवल ज्योत्सना की गोद में नीरव शान्त वनस्थली सुषुप्ति-सुख का अनुभव कर रही थी। पथिक एक पूरी निद्रा ले लेने के बाद जगा। निशीथ में उसे क्षुधा ने क्षुभित किया और अपने झोले से वह साथ लाया पाथेय निकालकर भोजन करने लगा। क्षुधा शान्त हो गयी। निर्झर के मधुर जलने उसे संतुष्ट कर दिया। प्रगाढ़ निद्रा ने पथ-श्रम दूर कर ही दिया था। शशांक के इस महोत्सव में पथिक प्रफुल्ल था। उसका हृदय शान्त और प्रसन्न था। हरसिंगार की कलिकाएँ खिलने लगी थीं। उनकी मधुर सुगन्धि से वायु आनन्द प्रदान कर रहा था। पथिक ने पुनः शयन का विचार नहीं किया। इतने शान्त सुहावने समय को वह यों ही निद्रा में खोना नहीं चाहता था। उसने उसी कम्बल पर आसन लगाया और अपने झोले से कुछ कागज, नोटबुक, पेन्सिल प्रभृति निकालकर वह अपने आगे के कार्यक्रम को निश्चित करने में लग गया। नोटबुक में उसी ने कभी लिखा था – ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्’और इस पंक्ति के नीचे लाल पेन्सिल से चिह्न लगा था। वह सोचने लगा – ‘सत्य की प्रतिष्ठा से कर्म का इच्छित फल प्राप्त होता है। ‘यह महर्षि पतञ्जलि वचन है। मैंने इस पर चिह्न भी लगाया है कि अवसर पड़ने पर इस पर विचार करूँगा। महर्षि का वाक्य मिथ्या तो हो नहीं सकता, फिर क्यों न सब जंजाल और दाँव-पेंच को छोड़कर इसी से काम निकालूं। पथिक को पुनः आलस्य प्रतीत हुआ। कर्तव्य के सम्बन्थ में वह निश्चिन्त हो गया था, अतः लेट गया। पिण्डारों (ठगों) ने बड़ा उत्पात मचा रखा था। वे यात्रियों को तो लूटते ही थे, अवसर देखकर ग्राम एवं बाजारों को भी लूट लेते थे। उनका दल बढ़ता ही जाता था। छत्तीसगढ़ में उनका प्राबल्य था और उसमें भी रायपुर-राज्य में। उन्होंने अब अपना सुदृढ़ संगठन बना लिया था एवं वे डकैती करने लगे थे। यात्रियों तक हो तो कोई बात भी है, ग्राम और बाजारों से बढ़ते-बढ़ते पिण्डारों ने आज राज्य का तहसील से आता हुआ खजाना भी लूट लिया था। खजाने के साथ आनेवाले सिपाहियों को उन्होंने मार दिया था। इससे सैनिकों में बड़ी उत्तेजना थी। सभी को प्राण प्यारे होते हैं। सभी जगह उपर्युक्त घटना की चर्चा थी और सिपाही नगर से बाहर कहीं भी खजाने के साथ न जाने की सलाह कर रहे थे। बात मंत्री तक पहुँची और उसने महाराज को एक की दो बनाकर समझाया; क्योंकि कुशल सचिव चाहता था कि पिन्डारों का शीघ्र दमन हो। यही कारण है कि मोहनसिंह के समान शान्त और राज्य की ओर से कान में तेल डालकर महल में पड़े रहनेवाला राजा भी आज व्यग्र था। उसे चिन्ता हो गयी थी कि कहीं पिण्डारे और बढ़कर पूरे राज्य पर अधिकार न कर बैठें। अपनी सत्ता की रक्षा के विचार से राजा आज व्याकुल था। लगभग सब चतुर, शिक्षित एवं वीर नागरिक निमंत्रित हुए। उन दिनों के राज्य ही कितने बड़े थे? नगर को एक अच्छा बाजार कहना चाहिए। महाराज का दरबार लगा। प्रश्न था – ‘पिण्डारों का दमन कैसे हो? ‘अन्त में मन्त्री की सम्मति सब को प्रिय लगी कि ‘पिण्डारों के गुप्त अड्डे का पता लगाया जाय। वहाँ वे सब लोग कब एकत्र और असावधान रहते हैं, यह ज्ञात किया जाय। उसी समय उन पर अचानक आक्रमण हौ।’ यह काम करे कौन? बड़ा टेढ़ा प्रश्न था। महाराज ने बीड़ा रक्खा और पद, पुरस्कार तथा जागीर का लोभ दिखाया। प्राण पर खेलने का प्रश्न था। सबके सिर झुके थे। बड़ी देर हो गयी, पर किसी ने बीड़ा उठाया नहीं। अन्त में एक ब्राह्मण युवक उठा। साँवला -दुबला शरीर, भाल पर भस्म का त्रिपुण्ड और भुजा तथा कण्ठ में रुद्राक्ष की माला। सब ने आश्चर्य से देखने लगे। उसने बीड़ा उठाकर मुख में रक्खा और बिना किसी को बोलने का अवसर दिये सभा से शीघ्रता के साथ चला गया। ‘आप कहाँ जा रहे हैं? एक पथिक से एक वृक्ष के नीचे बैठे दूसरे व्यक्ति ने पूछा जो वेष-भूषा से पथिक ही जान पड़ता था। ‘पिण्डारों के अड्डे पर। ‘बिना किसी संकोच के उसे उत्तर मिला। प्रश्नकर्त्ता को ऐसा उत्तर पाने की तनिक भी आशा न थी। वह भौंचक्का रह गया और घूरकर उस पथिक के मुख को देखने लगा। ‘भाई! मैं भी यात्री हूँ। इधर वन में भय है। इसलिये साथी की प्रतीक्षा में बैठ गया था। आप मुझसे हँसी क्यों करते हैं? मैं पिण्डारा थोड़े ही हूँ। ‘चोर की दाढ़ी में तिनका, पथिक के उत्तर से उस पूछनेवाले को, जो सचमुच एक प्रधान था, संदेह हो गया कि यह मुझे पहचानकर व्यंग कर रहा है। ‘मैं हँसी नहीं करता ‘गम्भीरता से पथिक ने कहा। ‘सचमुच ही मैं पिण्डारों के अड्डे पर जाना चाहता हूँ, किंतु अभी मेरे गन्तव्य का मुझे कुछ भी पता नहीं लग सका है। कितना अच्छा होता कि कोई पिण्डारा मुझे मिल जाता।’ ‘और तुम्हें ठिकाने लगाकर कपड़े-लत्ते लेकर चम्पत होता! ‘हँसकर ठगने बात पूरी की और ध्यान से अपने शब्दों के प्रभाव को पथिक के मुख पर देखने लगा। ‘ठिकाने लगाने या चम्पत होने की तो कोई बात नहीं’ पथिक की गम्भीरता अखण्ड थी। ‘मेरे पास आठ अशर्फियाँ हैं और ये वस्त्र, इन्हें मैं प्रसन्नता से दे सकता हूँ। फिर कोई ब्राह्मण को व्यर्थ क्यों मारेगा?’ ‘देवता! तब आपको पता होना चाहिये कि मैं ही यहाँ के पिण्डारों का सरदार हूँ।’ उसने ब्राह्मण के मुख पर अपने नेत्र गड़ा दिये। पथिक उल्लसित हो उठा- ‘जय शंकर भगवान् की! मुझे व्यर्थ में भटकना न होगा। आप चाहें तो ये अशर्फियाँ ले लें और कहें तो लँगोटी लगाकर सब कपड़े भी उतार दूँ, किंतु आप इतनी कृपा और करें कि अपना अड्डा मुझे दिखा दें। ‘अशर्फियों को ब्राह्मण ने झोले से निकाल कर ठग के आगे रख दिया। ‘आप मेरे अड्डे पर क्यों जाना चाहते हैं? सरदार ने ब्राह्मण की निःस्पृहता और प्रसन्नता से कुतूहल में पड़कर पूछा। उसने मुहरें उठा ली थीं और वस्त्र उतरवाने की बात भी भूल चुका था। ब्राह्मण एक क्षण रुका ‘क्या यहाँ भी सत्य….निश्चय। जब सत्य बोलने से इतनी सफलता हुई है तो आगे झूठ नहीं बोलूँगा। ‘उसने स्पष्ट बतला दिया कि ‘मैं रायपुर-राज्य का गुप्तचर होकर आया हूँ। ‘उसने कहा– ‘मैंने अनेकों युक्तियाँ सोचीं, किन्तु महर्षि पतञ्जलि के सूत्र ने सब को दबा दिया। मैंने निश्चय किया कि ‘मैं झूँठ नहीं बोलूँगा और अब तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि जीवन में कभी भी असत्य का आश्रय नहीं लूँगा।’ ब्राह्मण युवक के मुख पर सात्विक दृढ़ता थी। ठगों के सरदार का हृदय भी मनुष्य ही हृदय था। वह उसकी ओर फिर सिर उठाकर देख नहीं सका। चुपचाप घूमकर नेत्र पोंछें और ब्राह्मण को पीछे आने का संकेत करके घनी झाड़ियों के बीच में घुसने लगा। रायपुर के महाराज का दरबार लगा था। रुद्रदेव शर्मा पिण्डारों के अड्डे का पता, वहाँ का मार्ग, उनकी शक्ति प्रभृति सबका पता लगाकर आ गये थे। राजसभा में उन्होंने सब बातों को सविस्तार सुनाया। केवल उन्होंने छोड़ दिया कुछ सोचकर या व्यर्थ का विस्तार समझ अपने यात्रा के वर्णन को। ‘पिण्डारों पर चढ़ाई का भार कौन लेगा? ‘महाराज ने पूछा। ‘किन्तु पिण्डारे तो परास्त हो चुके हैं। उन पर अब चढ़ाई होगी क्यों? ‘एक हट्टे-कट्टे पुरुष ने प्रवेश करते हुए कहा। ‘गुरुदेव की सत्यता ने पिण्डारों को पूरी तरह परास्त कर दिया है और उनका सरदार अब उनका स्वेच्छा-बंदी है। ‘उस ब्राह्मण के चरणों पर गिरकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। सब चकित थे और ब्राह्मण कर्तव्यविमूढ़! पूरा वृतान्त ज्ञात होनेपर महाराज सिंहासन से उतर पड़े। उन्होंने ब्राह्मण के चरणों में मस्तक रक्खा और उस सरदार को उठाकर हृदय से लगा लिया। रुद्रदेव शर्मा राजगुरु हो गये एवं अभयसिंह पिण्डारा रायपुर-राज्य के मंत्रित्व को सँभालने के लिए विवश हुए। इतिहास अस्थिर होता है, किन्तु महत्कर्म उसे भी स्थायी बना ही जाते हैं। छत्तीसगढ़ जंगली जातियों में अब भी शपथ देते समय ‘झूठ बोलूँ तो रुद्र की सौगन्ध’ कहने की प्रथा है। विश्वास किया जाता है कि रुद्र का नाम लेकर झूठ बोलनेवाले के घर या तो चोरी होती है या डाका पड़ता है। रुद्र वहाँ सत्य के प्रतीक हो चुके हैं।

1 thought on “दस महाव्रत”

  1. सादर नमस्ते,

    यह पुस्तक मुझे वर्ष १९९८ में मिला था| जो गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा १९६५ के आस पास का छपा हुआ था| कुछ समय पश्चात वो मुझसे खो गया और फिर नहीं मिला|
    प्रथम तीन कहानियाँ मैंने अपने हाथ से उस पुस्तक से लिख कर रख ली थी|
    आज आपकी कृपा से मुझे पुनः वह पुस्तक प्राप्त हुआ है|
    गीता प्रेस इसे अब नहीं छापती|
    आपका अनेकों धन्यवाद्|

    मैं इस पुस्तक की कहानियों का सार यदा कदा लोगों को सुनाता हूँ|

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