दस महाव्रत

अस्तेय

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्। (योगदर्शन 2. 37)

‘गुरुदेव! कलसे भूखा हूँ!’ ‘तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो!’ बेचारे बालक के नेत्र भर आये। वह नहीं जान सका कि गुरुदेव उससे इतने असंतुष्ट क्यों हैं। उसके शरीर पर एकमात्र कौपीन थी और इस शीतकाल से दो दिन से उसके पेट में एक दाना भी नहीं गया था। उसका अंग-अंग ठिठुरा जाता था। ऊपर से यह फटकार। धीरे-धीरे वह सिसकने लगा। ‘रामदास! ‘गुरुदेव द्रवित हुए और स्नेह से पुचकारा- ‘मैं चार दिन के लिए बाहर गया और आश्रम खाली हो गया , सोचो ऐसा क्यों हुआ? ‘बालक सिसकता जाता था। आश्रम में ऐसा था ही क्या जो खाली हो गया? गुरुदेव कुल आध सेर तो आटा छोड़ गये थे। उसी को उलटा-सीधा सेंककर बिना नमक के ही उसने दो दिन किसी प्रकार काम चलाया। उनके समय जिन भक्तों की भीड़ लगी रहती थी, उनकी अनुपस्थिति में उनमें-से कोई मुख दिखाने भी नहीं आया था। ‘देखो, झोले में थोड़े फल हैं और कुछ मीठा भी। उन्हें निकाल लो। ‘गुरुदेव की इस आज्ञाका पालन नहीं हुआ ; क्योंकि शिष्य इतना दुखी हो गया था कि उसे रोने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता था। वह रोता जाता था और अपने हाथों से आँसू भी पोंछता जाता था। ‘बेटा, रो मत। झौला उठा तो ला! ‘चुपचाप उसने आज्ञा का पालन किया और फिर एक ओर खिसक कर आँसू पोंछने लगा। गुरुदेव ने बहुत-से फल निकाले और कुछ लड्डू भी। अञ्जलि भरकर उसे देने लगे। अब उससे रहा नहीं गया। वह उनके चरणों में मस्तक रखकर फूट पड़ा। घिग्घी बँध गयी। गुरुदेव ने उठाकर उसे गोद में बैठा लिया। आँसू पोंछ दिये। कमण्डलु के जल से स्वयं मुख धो दिया और स्वयं उसे फल छीलकर खिलाने लगे। ‘बच्चे, तुम सदा बच्चे ही नहीं रहोगे अपने को समझो और यह तुच्छ मोह दूर करो! ‘गुरुदेव यों ही कुछ कहते जाते थे। वे प्रायः ऐसी बातें करते थे, जो उनका बालशिष्य समझ नहीं पाता था। बालक का दुःख कितनी देर का? गुरु के स्नेह से वह चुप हो गया। उनकी गोद से उतरकर वह स्वयं उन फलों से क्षुधा शान्त करने लगा। केवल चोर को अभाव होता है। जो चोरी नहीं करता, उसके चरणों में विश्व की सम्पत्ति लौटा करती है। जब किसी को फटे हाल और भूखों मरते देखो तो समझ लो कि वह चोर है। यदि कोई किसी प्रकार की तनिक भी चोरी न करे तो भी उसे कभी भी आर्थिक कष्ट न होगा।’ एक छोटा सा ब्राह्मणकुमार था। सुन्दर गौर एवं लम्बे शरीर का। माता-पिता उसे बचपन में छोड़ चुके थे। वह समीप के प्रसिद्ध संत सिद्धमहाराज के आश्रम पर आया। महाराज न तो किसी को शिष्य बनाते थे और न आश्रम-पर रहने देते थे, किंतु न जाने इस बालक में उन्होंने क्या देखा अथवा बालक का प्रारब्ध समझिये, इसे उन्होंने अपना लिया। पुत्र की भाँति वे इसका पालन करते और बालक पिता से कहीं अधिक उन्हें मानता। यों तो श्रद्धालु भक्तों की सदा ही आश्रम पर भीड़ लगी रहती थी; पर आज अभी तक कोई आया नहीं था। महाराज बाहर से लौटे थे, इससे सम्भवतः भक्तों को अभी पता नहीं लगा होगा। एकान्त पाकर वे अपने शिष्य को समझा रहे थे जो अपनी लम्बी जटाओं को एक हाथ से सहलाता हुआ कौपीन लगाये उनके सामने बैठा उत्सुकता से उनके वचनों को सुन रहा था। ‘देखो, संसार का यह नियम है कि तुम दूसरों के जिस पदार्थ को हानि पहुँचाओगे, तुम्हारा वही पदार्थ तुमसे छिन जायगा। यही भगवान् का न्याय है। जो दूसरे के लड़कों को सताता या उनसे द्वेष करता है, उसे लड़के नहीं होते या होकर मर जाते हैं। जो दूसरों के स्वास्थ्य को बिगाड़ता है, वह रोगी होता है। जो चोरी करता है, वह दरिद्र होता है। इसी प्रकार दूसरों के ऊपर तुम जो चोट करते हो, वह दीवार पर मारी हुई गेंद की भाँति तुम्हारे ही ऊपर लौट आती है’ बालक अभी बालक ही था। उसकी बुद्धि इतने उपदेशों को ग्रहण नहीं कर सकती थी। उसने स्वाभाविक चपलता से बीच में ही पूछा – ‘गुरुदेव! चोर तो धन चुराता है, फिर उसके पास खूब धन रहेगा। वह दरिद्र कैसे होगा?’ गुरुदेव ने गम्भीरता से शिष्य को देखा – ‘मैं पहले ही समझता था कि तेरा अधिकार अस्तेय साधन से ही प्रारम्भ करने का है। ठीक है, माता प्रकृति तुझे उत्सुक और उत्थित कर रही है। ‘फिर उन्होंने स्वाभाविक स्वर में कहा- ‘इसे फिर समझाऊँगा! अभी तो मुझे आज संध्या को पुनः एक यात्रा करनी है। तुम भी साथ चलने को तैयार रहो!’ गुरुदेव के साथ यात्रा मे चलने का आदेश सुनकर बालक खिल उठा और वह झटपट उठकर उनका झोला ठीक करने में लग गया। ‘यहीं खड़े रहो और देखो!’ ‘इस गन्दी सँकरी गली के पास तो खड़े रहने को जी नहीं चाहता और इस अँधेरी रात्रि में यहाँ देखने को है भी क्या? कोई यहाँ खड़ा देखेगा तो जाने क्या समझेगा। ‘अभी यहाँ बहुत कुछ होनेवाला है। तुम शान्त होकर देखो! बोलना मत! आओ, इधर एक ओर छिपकर खड़े रहो! ‘एक अँधेरी गली में श्रावण की तससाच्छन्न रजनी में एक साधु अपने शिष्य से उपर्युक्त बातें कर रहे थे। आकाश में बादल छाये थे और छोटी-छोटी बूँद गिरने लगी थीं। दोनों एक कोने में छिप रहे। गली में किसी के आने की आहट हुई। दो व्यक्तियों की अस्पष्ट फुसफुसाहट सुनायी पड़ी। गली दो अट्टालिकाओं का पिछवाड़ा था। उनमें-से एक की खिड़की खुली थी। सर्र से एक ध्वनि हुई और तनिक देर में कोई काली बड़ी-सी वस्तु ऊपर को जाती दिखलायी दी। एक छोटा-सा खटका हुआ। वह काली वस्तु खिड़की के भीतर चली गयी। खिड़की से आता धीमा प्रकाश बन्द हो गया। बड़ी देर तक गली में सन्नाटा रहा। साधुका बालक शिष्य अपने भीतर की आकुलता दबाये चुपचाप खड़ा था। मन में बहुत कुछ पूछने की उत्सुकता थी; किन्तु गुरुजी बार-बार हाथ दबाकर उसे शान्त रहने का संकेत कर रहे थे। ऊपर से हल्की ताली बजी, नीचे से भी किसी ने वैसे ही संकेत किया। अबकी बार ऊपर से क्रमशः दो काली-काली वस्तुएँ उतरीं। फिर सन्नाटा हो गया। साधु अपने शिष्य को लेकर गली से निकले और उसे चुप रहने को कहकर एक ओर तीव्रता से चल पड़े। बड़ी दूर नगर से बाहर जाकर दो तीन नाले पार करके एक झाड़ी के पास वे रुक गये। थोड़ी दूर पर एक बत्ती जलती थी। दो व्यक्ति बैठे थे, जो अभी-अभी कहीं से एक सन्दूक लाये थे। प्रकाश में उनका मुख स्पष्ट दिखायी देता था। उन्होंने बक्स के ताले को रेती से काटकर बक्स खोला। उसमें-से सोने के आभूषण और मुहरें निकालीं। बक्स इन्हीं से भरा था। इतना शिष्य को दिखलाकर गुरु उसे लेकर एक ओर चले। ठीक एक सप्ताह बाद- दोपहरी में साधु अपने शिष्य के साथ नगर में घूम रहे थे। एक झोपड़ी के बाहर दो भाई परस्पर झगड़ रहे थे। झगड़ा था पावभर सत्तू को लेकर। उनमें उस सत्तू का बँटवारा हो रहा था और प्रत्येक चाहता था कि अधिक भाग प्राप्त करना। उनके वस्त्र चिथड़े हो रहे थे। शरीर धूल से भरा था। मुख देखने से पता लगता था कि सम्भवतः कई दिन पर इन्हें यह सत्तू प्राप्त हुआ है। सत्तू सानकर बाँटना निश्चित हुआ। जल मिलाकर उन्होंने उसका पिण्ड बनाया। फिर बाँटने के लिए झगड़ा हो ही रहा था कि पीछे से कूदकर एक बन्दर उसे उठा ले गया। उनकी इस दीनता पर वह बालक साधु रो पड़ा। ‘रामदास! इन्हें पहले पहचानो और तब रोओ!’ गुरु के वचनों से बालक को कुछ स्मरण हुआ। उसने ध्यान से देखा – ‘ये तो उस रातवाले चोर हैं! इनके वे गहने और मुहरें क्या हुईं?’ साधु हँसे – ‘तू तो कहता था कि चोर धन चुराकर धनी हो जायगा।’ ‘गुरुदेव! पर इनका धन हो क्या गया?’ ‘इन्होंने आभूषण और मुहरें छिपाने के लिए उन्हें एक सेठ के यहाँ रक्खा। उसे भी उसमें भाग देने को कहा। उसे लोभ सवार हुआ। जब ये दुबारा माँगने गये तो देना तो दूर, उसने इन्हें पकड़वा देने की धमकी दी। विवश होकर ये लौट आये। इनसे सेठ को भय था कि यहाँ रहेंगे तो बदला लेंगे। अतएव उसने अपने आदमियों से इनके घर के सब बर्तन, वस्त्र, पशु प्रभृति चोरी करवा दिये। इस प्रकार घर की पूँजी भी खोकर अब ये दाने-दाने को तरस रहे हैं!’ गुरुदेव! इन्होंने तो चोरी की थी, तब भूखों मर रहे हैं। मैंने क्या अपराध किया जो दो दिन मुझे अन्न नहीं मिला और आपने कहा कि तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो!’ ‘चोरी केवल धन की ही नहीं होती। जिस वस्तु में दूसरों को भाग मिलना चाहिए, उसे छिपाकर खा लेना, दूसरे की वस्तु को बिना माँगे ले लेना आदि भी चोरी ही है। बेटा! बड़ी चोरी से तो बहुत लोग बचते हैं, किन्तु इन छोटी चोरियों से ही बचना कठिन है। तुम्हें स्मरण है कि एक दिन भक्त तुम्हें इलायची दे रहा था। तुमने उसके देने पर तो अस्वीकार कर दिया और उसके हटने पर दो इलायची चुपके-से उठा लीं। इसी चोरी के फलस्वरूप तुम्हें दो दिन अन्न नहीं मिला।’ शिष्य के नेत्र भर आये। गुरु के चरणों में मस्तक रख कर उसने फिर कभी चोरी न करने की प्रतिज्ञा की। + + + समर्थ रामदास जब किसी को शिष्य रूप में स्वीकार करते थे तो किसी प्रकार की कोई भी छोटी-से-छोटी चोरी न करने की प्रतिज्ञा कराते थे। उनके शिष्यों ने इस प्रतिज्ञा का कितना पालन किया, सो पता नहीं, किन्तु सभी जानते हैं कि छत्रपति शिवाजी की समस्त राज्य विभूति श्रीसमर्थ के चरणों मे लुण्ठित उन्हीं की प्रसाद स्वरूप थी। यह समर्थ की अस्तेय-प्रतिष्ठा का प्रताप था।

1 thought on “दस महाव्रत”

  1. सादर नमस्ते,

    यह पुस्तक मुझे वर्ष १९९८ में मिला था| जो गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा १९६५ के आस पास का छपा हुआ था| कुछ समय पश्चात वो मुझसे खो गया और फिर नहीं मिला|
    प्रथम तीन कहानियाँ मैंने अपने हाथ से उस पुस्तक से लिख कर रख ली थी|
    आज आपकी कृपा से मुझे पुनः वह पुस्तक प्राप्त हुआ है|
    गीता प्रेस इसे अब नहीं छापती|
    आपका अनेकों धन्यवाद्|

    मैं इस पुस्तक की कहानियों का सार यदा कदा लोगों को सुनाता हूँ|

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