दस महाव्रत

ब्रह्मचर्य ———————

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: (योगदर्शन 2.38 )

पयस्विनी के पावन तट पर एक शिलापर बैठा मैं बार-बार अपनी पुस्तक को खोलता और उपर्युक्त सूत्र को पढ़कर फिर बंद कर देता। मेरे सिर पर एक पारिजात का वृक्ष झूम रहा था। वायु के कोमल शीतल स्पर्श से प्रसन्न होकर वह अपनी सुरभित निधि बार-बार मेरे ऊपर उँड़ेलता जाता था और मैं उसकी इस सुमनवृष्टि को आदर से स्वीकार करके कभी-कभी इकत्र भी कर लेता था – चरणों के नीचे कलकल करती भागती जाती पयस्विनी की लोल लहररूपी बालिकाओं को खेलने के लिये अञ्जलि भरकर पुन: पुन: प्रदान करने एवं उस क्रीड़ा से नेत्रों को तृप्त करने के लिए। उस पार थी सघन वनावली और उसके दक्षिण कक्ष में भवनों के शिखर दृष्टि पड़ते थे। अपने पीछे की छोटी झाड़ी के पार खेतों की श्रेणी को मैं भूल गया था। इस समय तो यात्रा में साथ लाये योगदर्शन से उलझा बैठा था और बीच-बीच में स्वभावत: हाथ सुमनों को एकत्र करके जल में डालते भी जा रहे थे। यह क्रीड़ा थी, अर्चन नहीं। मैं सोच रहा था – एक बच्चा भी जानता है कि यदि पैसा खर्च न किया जाय तो बचेगा। यदि भोजन न करें तो अन्न बच रहेगा। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यपालन से वीर्यलाभ तो स्वाभाविक है। इसे कोई मूर्ख भी सरलता से जान सकता है या जानता ही है। फिर महर्षि पतञ्जलि ने यह सूत्र क्यों बनाया? स्वभाव का विधान तो कोई अर्थ नहीं रखता। जैसे दूसरे यम-नियम का उन्होंने महत्व बतलाया है, वैसे ही इसका भी क्यों नहीं बताया? वीर्यलाभ तो कोई विशेष बात हुई नहीं। ब्रह्मचर्य कोई उपेक्षणीय विषय है भी नहीं तब ऐसा क्यों हुआ? मैं ठहरा ज्ञान लव-दुर्विदग्ध, अतः संसार में अपने को सबसे बड़ा समझदार माननेवाला मेरा मस्तिष्क गतिशील हुआ– महर्षि भी तो मनुष्य ही थे, मनुष्य से भूल होती ही है। यहाँ उन्होंने भूल की है। तब यहाँ ठीक क्या होगा! ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठा से बल मिलता है। नहीं- मेरे पास के ग्राम में सुखरामसिंह कितने प्रसिद्ध पहलवान हैं; किंतु वे ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। उनके स्त्री है, कई बच्चे हैं। उनके अखाड़े में जाने वाले कई एक को तो मैं जानता ही हूँ। उनमें जैसी गंदी बातें होती रहती हैं, उससे कोई सभ्य पुरुष उनके पास बैठना भी पसन्द नहीं करेगा। अतः ब्रह्मचर्य से बल होता है, यह तो ठीक नहीं। तब? ब्रह्मचर्य से शरीर मोटा होता है? यह तो उपहासास्पद है। थुलथुल मोटे क्या ब्रह्मचारी हैं सभी? ब्रह्मचर्य से तेज होता है। बात कुछ ठीक लगी। ऐं! तेज या चमक तो अग्नि का गुण है। पित्त-प्रकृति वालों के मुख पर चमक हो सकती है। मेरे ग्राम के जमींदार का ललाट चमकता है; किंतु आचरण के सम्बन्ध में तो उनका पर्याप्त अयश है। स्मरण आया-प्राकृतिक चिकित्सा के आचार्यों का मत है कि ललाट पर मेद की मुटाई या चमक रोग का चिह्न है। वह सूचित करता है कि उदर का विजातीय द्रव्य मस्तक तक पहुँच चुका है। बल, शरीर की गठन एवं दृढ़ता, मोटापन, तेज, स्फूर्ति – ये सब ब्रह्मचर्य के प्रधान लक्षण नहीं हैं। ये ब्रह्मचर्य से प्राप्त नहीं होते , ऐसा नहीं कहा जा सकता। इनकी पूर्णता अवश्य ब्रह्मचर्य से ही होती हे। फिर भी इनकी उपलब्धि ब्रह्मचर्य के बिना सम्भव है। बल एवं शरीरगठन मासँपेशियों से होता है। पुष्टिकर भोजन और व्यायाम से ये प्राप्य हैं। मोटापन स्निग्ध पदार्थों की भोजन में अधिकता या किसी भी कारण से शरीर में मेद की वृद्धि से होता है। पित्त की भाल पर पहुँच तेज का कारण है और वह रोग का पूर्वरूप भी हो सकता है। स्फूर्ति आती है अभ्यास से। सैनिकों में और चोर-डाकुओं में वह पर्याप्त होती है। तब क्या पाश्चात्य लोगों की सम्मति ही ठीक है? ब्रह्मचर्य व्यर्थ की कल्पना है, उस से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; ‘ब्रह्मचर्य से वीर्यलाभ ‘-यह तो कोई लाभ नहीं हुआ! वीर्यलाभ न भी हो तो क्या हानि? उसके अतिरिक्त भी हो तो उपाय हैं जो सबल, सशक्त, सतेज रखते हैं। क्यों उसी पर बल दिया जाय? ब्रह्मचर्य, जिसका शास्त्रों में इतना महत्व है, जो भारतीय संस्कृति के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की रीढ़ है, वही व्यर्थ हृदय इसे स्वीकार करने को तनिक भी प्रस्तुत नहीं हो रहा था। मैं चला था समस्या को सुलझाने, वह दुगुनी उलझ गयी। अनेक प्रकार के तर्क उठने लगे। साँढ़ ब्रह्मचारी नहीं होता- पर वह बैलों से सुदृढ़ होता है। बैल यदि बधिया न हों और संयत रहें? साँढ़ अल्पायु भी तो होता है! मैं इन तर्कों के जाल में उलझकर श्रान्त हो गया और पता नहीं कि कब मुझे उस शीतल मन्द समीर की कोमल थपकियों ने उसी शिलापर पारिजात की सुरभित गोद में सुला दिया। ‘दुबला-पतला शरीर, कमर में कौपीन और सिर पर जटा, ये ब्रह्मचारी हैं! सो भी आजन्म ब्रह्मचारी! ‘मुझे तो विश्वास नहीं होता था। ‘चर्म अस्थियों से चिमटा और मुख पर भी कोई विशेषता नहीं। इन्हें कौन ब्रह्मचारी कहेगा? ‘उन्होंने संकेत किया और मैं उनके पीछे चलने लगा। पता नहीं क्या हुआ, वे उपवास करने लगे उनके साथ मैं भी। एक दिन गया, दो दिन गया और तीसरा दिन भी बीत गया। हम लोग कहीं जंगल में थे , जहाँ यमुनाजी भी थीं। एक मिट्टी का घड़ा था। उसे कोई भरता नहीं था। फिर भी जब मैं उसमें से पानी उँड़ेलता तो वह भरा ही मिलता। वही यमुनाजलमात्र हम दोनों पीते थे। पेट में चूहों ने डंड लगाना छोड़कर चौकड़ियाँ भरना प्रारम्भ कर दिया। भूख के मारे मेरी दुर्दशा होती जा रही थी। प्यास न लगने पर भी भूख मिटाने के लिए बार-बार जल पीता था। दिनभर पड़ा रहता था चटाई पर! पानी लेने को भी उठना भारी प्रतीत होता था। सिर में चक्कर आने लगता था। मेरी तो यह दशा थी और वे ब्रह्मचारी? उनकी कुछ मत पूछिये। पता नहीं वे पत्थर के बने थे या लोहे के। स्नान करने यमुना जी जाते तो दौड़कर, फिर जल में भली प्रकार तैराई करते। जाने कहाँ-कहाँ से पुष्प एकत्र करके अपने नन्हें ठाकुर को सजाते। पूजा-पाठ से छूट्टी पाकर इधर-उधर फुदकते फिरते। भागवत का पाठ करते। कुछ न होता तो मेरी दुर्बलता पर खिलखिलाकर हँसते और मेरी हँसी उड़ाते। जैसे कभी भूख लगती ही नहीं। ‘आपको भूख नहीं लगती क्या?’ ‘लगती क्यों नहीं?’ ‘भूख लगती तो ऐसे फुदकते फिरते!’ ‘वे हँस पड़े – ‘ब्रह्मचारी के वीर्य में भी तो कुछ शक्ति होती है। जो तनिक से कष्ट से व्याकुल हो जाय, वह कैसा ब्रह्मचारी?’ ‘ओह! ……’मैं कुछ और कहनेवाला था, इतने में हमारे झोंपड़े के द्वार में एक नृसिंहदेव के लघु भ्राता व्याघ्रदेव ने अपना श्रीमुख दिखलाया। कुछ न पूछिये-मेरा हृदय उछलने लगा। रक्त शीतल होने लगा। उस अशक्ति में भी मैं उठा और उछलकर कोने में जा रहा। ‘आइये भगवन्! ‘ब्रह्मचारीजी हँसकर बोले। ‘आप भी यमुनाजल पीकर हमारे संग उपवास कीजिए!’ उन्हें भय भी नहीं लगता था। बाघने मुख फाड़ा और मैं चीख पड़ा। ब्रह्मचारी ने एक बार मेरी ओर देखा। मुझे हाथ-पैर पेट में किये दीवार में प्रविष्ट होने का व्यर्थ प्रयत्न करते देख वे फिर जोर से हँसे। ‘हमारे मित्र आपसे डर रहे हैं; उन्हें कष्ट है; अतः आपका लौट जाना अच्छा है।’ गम्भीर होकर उन्होंने व्याघ्र पर दृष्टि डाली। उसके दोनों पैर भीतर आ गये थे और वह मुझे घूरने लगा था। ‘उधर नहीं, पीछे! ‘और तब एक क्षण रुककर ब्रह्मचारी ने उस बनराज के मस्तक पर एक चपत जड़ दी। ‘लौटता है या नहीं? ‘उन्होंने अपनी खड़ाऊँ उठायी। जैसे वह कोई चूहा हो, जो खड़ाऊँसे ठीक किया जा सके। आप हँसेंगे, मुझे भी अब हँसी आती है, किंतु उस समय मेरी दूसरी ही दशा थी उस खड़ाऊँ से भी आशा जा अटकती थी। ‘डूबते को तिनके का सहारा।’ बाघ ने एक बार एकटक ब्रह्मचारी को एक क्षण देखा और फिर पीधे मुड़ा। उसने मुड़ते ही छलाँग भरी, साथ ही कठोर गर्जना की। मैं चौंक पड़ा। उस गर्जना का भय अब भी हृदय को धड़का रहा था। श्वास का वेग बढ़ गया था। कुशल यही थी कि मैं पयस्विनी के तीर पर उसी शिलापर था। मेरे ऊपर हरश्रृङ्गार के पुष्प पड़े थे। झटपट उठ कर बैठ गया। पुस्तक अब भी शिलापर एक ओर खुली पड़ी थी मैने उसे उठाया। सर्वप्रथम उसी सूत्र पर दृष्टि पड़ी , जिस पर विचार करते-करते मैं सो गया था। अभय, धैर्य, साहस, ओज, मनोबल-ये सब वीर्य के अन्तर्गत आ जाते हैं। मुझे यह समझने की आवश्यकता रह नहीं गयी थी। ब्रह्मचारी तितिक्षु, धीर, निर्भय, स्वभावप्रसन्न एवं अन्तर्मुख होता है; क्योंकि वह वीर्यशाली होता है। उसे वीर्य की प्रप्ति होती है। मेरा हृदय उत्फुल्ल था और श्रद्धा से मेरा मस्तक उसी ग्रन्थ पर झुका हुआ था।

1 thought on “दस महाव्रत”

  1. सादर नमस्ते,

    यह पुस्तक मुझे वर्ष १९९८ में मिला था| जो गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा १९६५ के आस पास का छपा हुआ था| कुछ समय पश्चात वो मुझसे खो गया और फिर नहीं मिला|
    प्रथम तीन कहानियाँ मैंने अपने हाथ से उस पुस्तक से लिख कर रख ली थी|
    आज आपकी कृपा से मुझे पुनः वह पुस्तक प्राप्त हुआ है|
    गीता प्रेस इसे अब नहीं छापती|
    आपका अनेकों धन्यवाद्|

    मैं इस पुस्तक की कहानियों का सार यदा कदा लोगों को सुनाता हूँ|

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