दस महाव्रत

अपरिग्रह अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्तासम्बोधः। (योगदर्शन 2.39)

समाचार-पत्रों में कई बार ऐसे बच्चों का वर्णन मैंने पढ़ा है, जो अपने पूर्वजन्मकी की स्मृति रखते हैं। अपने पूर्वजन्म के माता-पिता, घर प्रभृति को पहचान भी लेते हैं। मेरे पड़ोस में आज डिप्टी श्रीरमाशंकरजी चतुर्वेदी आये हैं। मैंने इनकी कन्या के सम्बन्ध में पढ़ा था कि वह भी पूर्वजन्म की स्मृति रखती है। मैंने अपने यहाँ के साप्ताहिक-पत्र ‘निगम’ की पुरानी प्रतियों को उलटने-पुलटने में बहुत समय व्यतीत किया और अन्त में वह प्रति प्राप्त कर ली जिसमें डिप्टी साहब की पुत्री कुमारी कला के पूर्वजन्म की स्मृति का विवरण दिया गया था। डिप्टी साहब फैजाबाद से बदलकर परसों मथुरा आये हैं और ठहरे हैं मेरे पड़ोस के बँगले में। बड़े सज्जन हैं। कल संध्या समय स्वयं मेरे यहाँ टहलते आये और बड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करते रहे। उनके जाने पर मुझे उनकी कन्या के सम्बन्ध में समाचार-पत्रों में निकले समाचार का ध्यान आया। कल की भेंट ने संकोच को दूर कर ही दिया था, मैं स्वयं डिप्टी साहब के यहाँ पहुँचा। बँगले के सामने घास पर कुर्सी डाले वे बैठे थे। मुझे देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। ‘नमस्कार डाक्टर बाबू! ‘मैंने उनके अभिवादन का उत्तर दिया और उनके पास ही नौकरद्वारा लायी हुई कुर्सी पर बैठ गया। ‘आपसे कुछ जानने आया हूँ।’ ‘कहिये क्या?’ उनके आग्रह के उत्तर में मैंने ‘निगम’ की प्रति खोलकर उनके हाथ में दी और उस समाचार की ओर संकेत कर दिया। ‘यह प्रति कब की है? ‘उन्होंने समाचार का शीर्षक-मात्र देखकर फिर अपने प्रश्न के साथ कवर-पृष्ठ देखा और तब हँसकर बोले- ‘आप इतना पुराना समाचार कहाँ से ढूँढ़ लाये हैं? यह तो दो वर्ष की पुरानी प्रति है और अब तो कला सब भूल-भाल गयी है। ‘उन्होंने पत्र मुझे लौटा दिया। ‘क्या बच्चों को बुला देंगे! ‘उनकी उदासी मुझे अखरी। मैंने अपनी उत्सुकता को बिना दबाये हुए आग्रह किया। ‘क्यों नहीं’- उन्होंने लड़की को पुकारा और आयी पिताजी! ‘कहने के एक मिनट बाद ही दस वर्ष की एक भोली बालिका उनके पास आ गयी। ‘यही है’- डिप्टी साहब ने उसे मेरे सामने कर दिया हाथ पकड़कर। लड़की ने मुझे प्रणाम किया। मैंने उसे पास बुला लिया। वह संकोच से सिकुड़ी जाती थी। ‘बच्ची, तुम्हारा नाम क्या है? इस प्रकार परिचय बढ़ाने के लिए मैंने उससे कई प्रश्न किये। उसने सबका उत्तर दिया। प्रश्नों के ही क्रम में मैंने पूछा – ‘तुम बता सकती हो कि इससे पहले तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ था? ‘लड़की चुप हो गयी। कई बार पुचकारकर मैंने और डिप्टी साहब ने पूछा, तब कहीं उसने कहा -‘काशी में’। ‘काशी में किसके घर? ‘लड़की को और कुछ भी स्मरण नहीं था। वह आगे कुछ भी बता नहीं सकी। डिप्टी साहब-जैसे सम्पन्न, सरल और धार्मिक व्यक्ति भला समाचार-पत्रों में क्यों झूठा आडम्बर करेंगे? अतः उस साप्ताहिक-पत्र के विवरण को डिप्टी साहब के स्वीकार कर लेने के पश्चात् संदिग्ध समझने का कोई कारण नहीं था। यह एक समस्या अवश्य थी कि बच्चे बड़े होकर उस पूर्वजन्म की स्मृति को क्यों विस्मृत हो जाते हैं? डिप्टी साहब के पास भी इसका कोई समाधान नहीं था। जाड़े के दिन थे और संध्या का समय। मैं ड

1 thought on “दस महाव्रत”

  1. सादर नमस्ते,

    यह पुस्तक मुझे वर्ष १९९८ में मिला था| जो गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा १९६५ के आस पास का छपा हुआ था| कुछ समय पश्चात वो मुझसे खो गया और फिर नहीं मिला|
    प्रथम तीन कहानियाँ मैंने अपने हाथ से उस पुस्तक से लिख कर रख ली थी|
    आज आपकी कृपा से मुझे पुनः वह पुस्तक प्राप्त हुआ है|
    गीता प्रेस इसे अब नहीं छापती|
    आपका अनेकों धन्यवाद्|

    मैं इस पुस्तक की कहानियों का सार यदा कदा लोगों को सुनाता हूँ|

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