सम्रथाई का अंग – कबीर के दोहे

सम्रथाई का अंग

– संत कबीर

जिसहि न कोई तिसहि तू, जिस तू तिस ब कोइ ।
दरिगह तेरी सांईयां , ना मरूम कोइ होइ ॥1॥

भावार्थ / अर्थ – जिसका कहीं भी कोई सहारा नहीं, उसका एक तू ही सहारा है । जिसका तू हो गया, उससे सभी नाता जोड़ लेते हैं साईं ! तेरी दरगाह से, जो भी वहाँ पहुँचा, वह महरूम नहीं हुआ , सभी को आश्रय मिला ।

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ ॥2॥

भावार्थ / अर्थ – समंदरों की स्याही बना लूं और सारे ही वृक्षों की लेखनी, और कागज का काम लूँ सारी धरती से, तब भी हरि के अनन्त गुणों को लिखा नहीं जा सकेगा ।

अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ ।
अपना बाना वाहिया, कहि कहि थाके माइ ॥3॥

भावार्थ / अर्थ – उसका क्या वर्णन किया जाय, जो कि वर्णन से बाहर है ? मैं उसे कैसे देखूँ वह आँख ही नहीं देखने की । सबने अपना-अपना ही बाना पहनाया उसे, और कह-कहकर थक गया उनका अन्तर ।

झल बावैं झल दाहिनैं, झलहि माहिं व्यौहार ।
आगैं पीछैं झलमई, राखैं सिरजन हार ॥4॥

भावार्थ / अर्थ – झाल(ज्वाला) बाईं ओर जल रही है, और दाहिनी ओर भी, लपटों ने घेर लिया है दुनियाँ के सारे ही व्यवहार को । जहाँ तक नजर जाती है, जलती और उठती हुई लपटें ही दिखाई देती हैं । इस ज्वाला में से एक मेरा सिरजनहार ही निकालकर बचा सकता है ।

सांई मेरा बाणियां, सहजि करै ब्यौपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ैं, तोले सब संसार ॥5॥

भावार्थ / अर्थ – ऐसा बनिया है मेरा स्वामी, जिसका व्यापार सहज ही चल रहा है । उसकी तराजू में न तो डांडी है और न पलड़े फिर भी वह सारे संसार को तौल रहा है, सबको न्याय दे रहा है ।

साईं सूं सब होत है, बंदै थैं कुछ नाहिं ।
राईं थैं परबत कषै, परबत राई माहिं ॥6॥

भावार्थ / अर्थ – स्वामी ही मेरा समर्थ है, वह सब कुछ कर सकता है ; उसके इस बन्दे से कुछ भी नहीं होने का । वह राई से पर्वत कर देता है और उसके इशारे से पर्वत भी राई में समा जाता है ।