मानसरोवर भाग 3

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मानसरोवर भाग 3

कहानी-संग्रह

– लेखक-मुंशी प्रेमचंद

गुल्ली-डण्डा

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हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सब
खेलों का राजा है । अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जो लोट-
पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ । न लॊन की जरूरत, न कोर्ट की, न
नेट की, न थापी की । मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो
आदमी भी आ गये, तो खेल शुरू हो गया । विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके
सामान महँगे होते हैं । जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में
शुमार ही नहीं हो सकता । यहाँ गुल्ली-डण्डा है कि बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग
देता है; पर हम अँग्रेजी चीजों के पीछे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से
अरुचि हो गयी है । हमारे स्कूलों में हरेक लड़के से तीन चार रुपये सालाना केवल
खेलने की फीस ली जाती है । किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलायें; जो
बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं । अँग्रेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है ।
गरीब लड़कों के सिर क्यों यह ध्यान मढ़ते हो । ठीक है गुल्ली से आँख फूट जाने का
भय रहता है । तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का
भय नहीं रहता ? अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे
कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे । खैर, यह अपनी-अपनी रुचि है ।
मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही
सबसे मीठी है । वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना
और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाड़ियों के जम-घटे, वह पढ़ना और
पढ़ाना, वह लड़ाई-झगड़े, सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिलकुल भेद न
रहता था, जिसमें अमीराना चोंचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुञ्जाइश ही न थी, यह
उसी वक्त भूलेगा जब…जब…। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिता जी चौके पर बैठे वेग से
रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं ।
अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य
टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है, और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की
सुधि है, न खाने की । गुल्ली है तो जरा सी; पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की
मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है ।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था । मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा । दुबला,
लाँबा, बन्दरों की-सी लम्बी-लम्बी पतली-पतली उँगलियाँ, बन्दरों की-सी-ही चपलता, वही
झल्लाहट । गुल्ली कैसी हो, उस पर इस तरह लपकता था; जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती
है । मालूम नहीं उसके माँ बाप थे या नहीं, कहाँ रहता था, क्या खाता था, पर था हमारे
गुल्ली-क्लब का चेम्पियन । जिसकी तरफ वह आ जाय, उसकी जीत निश्चित थी । हम सब
उसे दूर से आते देख,उसका दौड़ कर स्वागत करते थे और उसे अपना गोइयाँ बना लेते थे ।
एक दिन हम और गया दो ही खेल रहे थे । वह पदा रहा था, मैं पद रहा था; मगर कुछ
विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन भर मस्त रह सकते हैं, पदना एक मिनट का भी अखरता
है । मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने
पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दाँव लिये बगैर मेरा पिण्ड न छोड़ता था ।
अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ । मैं घर की ओर भागा ।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डण्डा तानकर बोला–मेरा दाव देकर जाओ । पदाया तो
बड़े बहादुर बनके, पदने की बेर क्यों भागे जाते हो ?
`तुम दिन भर पदाओ तो मैं दिन भर पदता रहूँ !’
`हाँ, तुम्हें दिन भर पदना पड़ेगा ।’
`न खाने जाऊँ न पीने जाऊँ ?’
`हाँ, मेरा दाव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते ।’
`मैं तुम्हारा गुलाम हूँ ।’
`हाँ, मेरे गुलाम हो ।
`मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो ।’
`घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है । दाव दिया है, दाव लेंगे ।’
`अच्छा, कल मैंने तुम्हें अमरूद खिलाया था । वह लौटा दो ।’
`वह तो पेट में चला गया ।’
`निकालो पेट से । तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद ?’
`अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया । तुमसे माँगने न गया था ।’
`जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाव न दूँगा ।’
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है । आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया
होगा । कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है । भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए ही
देते हैं । जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाव लेने का क्या अधिकार है ?
रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं । यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जायगा ? अमरूद
पैसे के पाँच वाले थे , जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे । यह सरासर अन्याय था ।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा- मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं
जानता ।
मुझे न्याय का बल था । वह अन्याय पर डटा हुआ था । मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था ।
वह मुझे जाने न देता था ! मैंने गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली ही नहीं,
दो एक चाँटा जमा दिया । मैंने उसे दाँत काट लिया । उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा
दिया । मैं रोने लगा । गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका । भागा । मैंने
तुरन्त आँसू पोंछ डाले , डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा ! मैं थाने
दार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमान
जनक मालूम हुआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की ।

(2)

उन्हीं दिनों पिता जी का वहाँ से तबादला हो गया । नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा
फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दुःख न हुआ । पिता जी दुःखी थे ।
यह बड़ी आमदनी की जगह थी । अम्माँ जी भी दुःखी थीं, यहाँ सब चीजें सस्ती थीं, और
मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता
था ।
लड़कों से जीट उड़ा रहा था, वहाँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं । ऐसे -ऐसे ऊँचे घर हैं
कि आसमान से बातें करते हैं । वहाँ के अंग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को
पीटे, तो उसे जेहल हो जाय । मेरे मित्रों की फैली हुई आँखें और चकित-मुद्रा बतला
रही थीं कि मैं उनकी निगाह में कितना ऊँचा उठ गया हूँ । बच्चों में मिथ्या को सत्य
बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे ।
उन बेचारों को मुझसे कितनी स्पर्द्धा हो रही थी । मानो कह रहे थे-तुम भाग्यवान हो
भाई ,जाओ, हमें तो इस ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी ।
बीस साल गुजर गये । मैंने इञ्जीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ, उसी
कस्बे में पहुँचा और डाकबँगले में ठहरा । उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-
स्मृतियाँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी इठाई और कस्बे की सैर करने निकला ।
आँखें किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए
व्याकुल हो रही थीं , पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था । जहाँ
खँडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे । जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक
सुन्दर बगीचा था । स्थान की काया-पलट हो गयी थी । अगर उसके नाम और स्थिति का
ज्ञान न होता, तो मैं इसे पहचान भी न सकता । बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ
बाँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं ; मगर वह
दुनिया बदल गयी थी । ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम
मुझे भूल गयीं ! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ ।
सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा । एक क्षण
के लिए मैं अपने को बिलकुल भूल गया । भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी
ठाठ में, रोब और अधिकार के आवरण में ।
जाकर एक लड़के से पूछा–क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है ?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमें हुए स्वर में कहा–कौन गया ? गया चमार ?
मैंने यों ही कहा–हाँ-हाँ वही । गया नाम का कोई आदमी है तो । शायद वही हो ।
`हाँ, है तो ।’
`जरा उसे बुला ला सकते हो ?
लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिये आता दिखाई
दिया । मैं दूर ही से पहचान गया । उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ;
पर कुछ सोचकर रह गया । बोला–कहो गया, मुझे पहचानते हो ?
गया ने झुककर सलाम किया – हाँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं ? आप मजे में रहे ?
`बहुत मजे में । तुम अपनी कहो ?’
`डिप्टी साहब का साईस हूँ ।’
`मतई, मोहन, दुर्गा यह सब कहाँ हैं ? कुछ खबर है ?’
मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं, आप ?’
`मैं तो जिले का इञ्जीनियर हूँ ?’
`सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे ।’
`अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो ?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न की आँखों से देखा–अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो
पेट के धंधे से छुट्टी नहीं मिलती ।
आओ, आज हम तुम खेलें । तुम पदाना, हम पदेंगे । तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है । वह
आज ले लो ।
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ । वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर । हमारा
और उसका क्या जोड़ ? बेचारा झेंप रहा था; लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी ; इसलिए
नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था; बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझ
कर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जायगी । उस भीड़ में वह आनन्द कहाँ
रहेगा; पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता था । आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से
दूर जाकर एकान्त में खेलें । वहाँ कौन कोई देखनेवाला बैठा होगा ।
मजे से खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई का खूब रस ले लेकर खायेंगे । मैं गया को लेकर
डाक बँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले । साथ में एक कुल्हाड़ी
ले ली । मैं गम्भीर भाव धारण किये हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा
था । फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनन्द का कोई चिह्न न था । शायद वह हम दोनों
में जो अन्तर हो गया था, वही सोचने में मगन था ।
मैंने पूछा–तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया ? सच कहना ।
गया झेंपता हुआ बोला–मैं आपको क्या याद करता हुजूर, किस लायक हूँ । भाग में आपके
साथ कुछ दिन खेलना बदा था, नहीं मेरी क्या गिनती ।
मैंने कुछ उदास होकर कहा–लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आती थी । तुम्हारा वह
डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न ?
गया ने पछताते हुए कहा–वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ ।
`वाह ! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है । तुम्हारे उस डंडे में जो रस था,
वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में । कुछ ऐसी मिठास थी उसमें कि आज
तक उससे मन मीठा होता रहता है ।
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये हैं । चारों तरफ सन्नाटा है ।
पश्चिम की ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहाँ आकर हम किसी समय कमल के पुष्प
तोड़ ले जाते थे और उसके झुमके बनाकर कानों में डाल लेते थे । जेठ की संध्या केसर
में डूबी चली आ रही है । मैं लपक कर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया ।
चटपट गुल्ली-डंडा बन गया ।
खेल शुरू हो गया । मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली । गुल्ली गया के सामने से
निकल गयी । उसने हाथ लपकाया जैसे मछली पकड़ रहा हो । गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी
। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप-ही-आप जाकर बैठ जाती थी । वह
दाहिने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेलियों में ही पहुँचती थी । जैसे गुल्लियों पर
वशीकरण डाल देता हो । नई गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार
गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उसे मिल जाती थी ।
जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, जो गुल्लियों को खींच लेता हो, लेकिन आज गुल्ली
को उससे प्रेम नहीं रहा । फिर तो मैंने पदाना शुरू किया । मैं तरह-तरह की धाँधलियाँ
कर रहा था । अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था । हुच जाने पर भी डंडा खेले
जाता था; हालाँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी । गुल्ली पर जब ओछी
चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झटपट उसे खुद उठा लेता और दोबारा
टाँड़ लगाता । गया यह सारी बे-कायदगियाँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे
वह सब कायदे-कानून भूल गये । उसका निशाना कितना अचूक था । गुल्ली उसके हाथ से
निकलकर टन-से डंडे में आकर लगती थी । उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से
टकरा जाना; लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं । कभी दाहिने जाती है, कभी
बायें, कभी आगे, कभी पीछे ।
आध घण्टे पदाने के बाद एकबार गुल्ली डंडे में आ लगी । मैंने धाँधली की, गुल्ली डंडे
में नहीं लगी, बिलकुल पास से गयी’ लेकिन लगी नहीं ।
गया ने किसी प्रकार का असन्तोष न प्रकट किया ।
`न लगी होगी ।’
`डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता ?’
नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे ?’
बचपन में मजाल था, कि मैं ऐसा घपला कर के जीता बचता ! यही गया गरदन पर चढ़ बैठता;
लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिये चला जाता था । गधा है ! सारी बातें भूल
गया ।
सहसा गुल्ली फिर डंडे में लगी और इतने जोर से लगी जैसे बन्दूक छूटी हो । इस प्रमाण
के सामने अब किसी तरह की धाँधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका; लेकिन
क्यों न एकबार सच को झूठ बनाने की चेष्टा करूँ ? मेरा हरज ही क्या है । मान गया, तो
वाह-वाह, नहीं तो दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा । अँधेरे का बहाना करके जल्दी से
गला छुड़ा लूँगा । फिर कौन दाव देने आता है ।
गया ने विजय के उल्लास में कहा – लग गयी, लग गयी ! टन से बोली ।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा – तुमने लगते देखा ? मैंने तो नहीं देखा ।
`टन से बोली है सरकार !’
`और जो किसी ईंट में लग गयी हो ?’
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है । इस सत्य
को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना । हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में
जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया ।
`हाँ किसी ईंट में ही लगी होगी । डंडे में लगती, तो इतनी आवाज न आती ।’
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धाँधली कर लेने के बाद, गया की
सरलता पर मुझे दया आने लगी ; इसलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने
बड़ी उदारता से दाँव देना तय कर लिया ।
गया ने कहा–अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो ।
मैंने सोचा कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाये, इसी लिए इसी वक्त
मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा ।
`नहीं,नहीं । अभी बहुत उजाला है । तुम अपना दाँव ले लो ।’
`गुल्ली सूझेगी नहीं ।’
`कुछ परवाह नहीं ।’
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था । उसने दो बार टाँड़ लगाने
का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया । एक मिनट से कम में वह दाँव पूरा कर
चुका । बेचारा घण्टा भर पदा; पर एक मिनट ही में अपना दाँव खो बैठा । मैंने अपने
हृदय की विशालता का परिचय दिया ।
एक दाँव और खेल लो । तुम तो पहले ही हाथ में हुच गये ।
`नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया ।’
`तुम्हारा अभ्यास छूट गया । क्या कभी खेलते नहीं ?’
`खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया !’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते जलते पड़ाव पर पहुँच गये । गया चलते-चलते
बोला–कल यहाँ गुल्ली-डंडा होगा । सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे । आप भी आओगे । जब
आपको फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ । मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच
देखने आया । कोई दस-दस आदमियों की मण्डली थी । कई मेरे लड़कपन के साथी निकले ।
अधिकांश युवक थे, जिन्हें पहचान न सका । खेल शुरू हुआ । मैं मोटर पर बैठा-बैठा
तमाशा देखने लगा । आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया । टाँड़
लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती । कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह
बेदिली आज न थी । लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली । कहीं कल
इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता । उसके डंडे की चोट खाकर
गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी ।
पदनेवालों में एक युवक ने धाँधली की । उसने अपने विचार में गुल्ली रोक ली थी । गया
का कहना था–गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी । इस पर दोनों में तान ठोंकने की नौबत
आयी । युवक दब गया । गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया । अगर वह दब न जाता,
तो जरूर मार-पीट हो जाती । मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल से मुझे वही
लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे । अब मुझे
मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया । उसने मुझे
दया का पात्र समझा । मैंने धाँधली की, बेईमानियाँ कीं; पर उसे जरा भी क्रोध न आया ।
इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था । वह मुझे पदाकर
मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था । मैं अब अफसर हूँ । यह अफसरी मेरे और उसके
बीच में दीवार बन गयी है । मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ , अदब पा सकता हूँ, साह
चर्य नहीं पा सकता । लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था । हममें कोई भेद न था । यह
पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ । वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता । वह
बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ ।

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