128. राग गूजरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गूजरी

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आजु सखी मनि-खंभ-निकट हरि, जहँ गोरस कौं गो री ।

निज प्रतिबिंब सिखावत ज्यों सिसु, प्रगट करै जनि चोरी ॥

अरध बिभाग आजु तैं हम-तुम, भली बनी है जोरी ।

माखन खाहु कतहिं डारत हौ, छाड़ि देहु मति भोरी ॥

बाँट न लेहु, सबै चाहत हौ, यहै बात है थोरी ।

मीठौ अधिक, परम रुचि लागै, तौ भरि देउँ कमोरी ॥

प्रेम उमगि धीरज न रह्यौ, तब प्रगट हँसी मुख मोरी ।

सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ॥

भावार्थ ;— सूरदासजी कहते हैं कि (उस गोपिकाने बताया) ‘सखी (मेरे घरमें मणिमय खंभेके पास) जहाँ गोरसका ठिकाना है, वहाँ जाकर श्यामसुन्दर बैठे और उस खंभेमें पड़े प्रतिबिम्ब बालक की भाँति (बालक मानकर) सिखलाने लगे – ‘तू मेरी चोरी प्रकट मत करना । हमारी जोड़ी अच्छी मिली है, आजसे हमारा-तुम्हारा आधे-आधेका भाग रहा । मक्खन खाओ ! इसे गिराते क्यों हो ? यह भोली बुद्धिछोड़ दो । तुम बँटवारा करके नहीं लेना चाहते, सब-का-सब चाहते हो ? यही बात तो अच्छी नहीं । यह अत्यन्त मीठा है ;(पहले खाकर देखो) यह तुमको अत्यन्त रुचिकर लगे तो भरा हुआ मटका तुम्हींको दे दूँगा । (यह सुनकर) मेरा प्रेम उल्लसित हो उठा, धैर्य नहीं रहा; तब मैं मुख घुमाकर प्रत्यक्ष (जोरसे) हँस पड़ी । इससे श्याम संकुचित हो गये, मेरा मुख देखते ही वे कुंज-गलीमें भाग गये ।’

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