73. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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मैया, मोहि बड़ौ करि लै री ।

दूध-दही-घृत-माखन-मेवा, जो माँगौ सो दै री ॥

कछू हौंस राखै जनि मेरी, जोइ-जोइ मोहि रुचै री ।

होउँ बेगि मैं सबल सबनि मैं, सदा रहौं निरभै री ॥

रंगभूमि में कंस पछारौं, घीसि बहाऊँ बैरी ।

सूरदास स्वामी की लीला, मथुरा राखौं जै री ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं) ‘मैया ! मुझे (झटपट बड़ा बना ले । दूध, दही घी, मक्खन, मेवा आदि मैं जो माँगू, वही मुझे दिया कर । मुझे जो जो रुचिकर हो, वही दे; मेरी कोई इच्छा अधूरी मत रख, जिससे कि मैं शीघ्र ही सबसे बलवान् हो जाऊँ और सदा निर्भय रहा करुँ । अखाड़ेमें मैं कंसको पछाड़ दूँगा, उस शत्रुको घसीटकर नष्ट कर दूँगा और मथुराको विजय करके रहूँगा!’ सूरदासजी कहते हैं कि यह तो मेरे स्वामी की (आगे होने वाली) लीला ही है ।

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