177. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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 कब के बाँधे ऊखल दाम ।

कमल-नैन बाहिर करि राखे, तू बैठी सुख धाम ॥

है निरदई, दया कछु नाहीं, लागि रही गृह-काम ।

देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम ॥

छिरहु बेगि भई बड़ी बिरियाँ, बीति गए जुग जाम ।

तेरैं त्रास निकट नहिं आवत बोलि सकत नहिं राम ॥

जन कारन भुज आपु बँधाए,बचन कियौ रिषि-ताम ।

ताह दिन तैं प्रगट सूर-प्रभु यह दामोदर नाम ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है -)’कबसे इस कमल-लोचनको रस्सीमें ऊखलके साथ बाँधकर तुमने बाहर (आँगनमें) छोड़ दिया है और स्वयं सुखपूर्वक घरमें बैठी हो ! तुम बड़ी निर्दय हो, (तुममें) तनिक भी दया नहीं है; तभी तो (मोहनको बाँधकर) घरके काममें लगी हो । देखो तो श्यामसुन्दरका शरीर अत्यन्त कोमल है और भूख से इसका मुख मलिन हो गया है । झटपट खोल दो, बड़ी देर हो गयी, दो पहर बीत गये; तुम्हारे भयसे बलराम भी पास नहीं आते, न कुछ बोल ही सकते हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे प्रभुने भक्तों (यमलार्जुन) के लिये अपने हाथ बँधवाये हैं और देवर्षि नारदके क्रोध में कहे वचन (शाप)को सत्य किया (उस शापका उद्धार करना सोचा) है ! इसी दिनसे तो इनका दामोदर यह नाम प्रसिद्ध हुआ है ।

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